मास्क की स्वीकार्यता कितनी आवश्यक, पढ़िए वरिष्ठ फिजिशियन डॉ० एन.एस. बिष्ट की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट
[highlight]हम क्या सचमुच मास्क फ्री हो चुके ![/highlight]
- मास्क एक सामाजिक दायित्व भी है – दूसरों को स्वयं से सुरक्षित रखना।
[highlight]मास्क की स्वीकार्यता सिर्फ कोरोना नहीं बल्कि कई प्रकार के स्वांस रोगों का प्रतिरोध कर सकती है : डॉ० एनएस बिष्ट[/highlight]
आकाश ज्ञान वाटिका, 7 अक्टूबर 2021, रविवार, देहरादून। एक स्वतंत्र अनुमान के अनुसार देहरादून शहर में मास्क न पहनने वालों की संख्या उत्तराखंड के किसी भी शहर की पूरी जनसंख्या से भी अधिक है। पूरे जिले की जनसंख्या के संदर्भ में तो बिना मास्क वालों का अनुपात उत्तराखंड के दूसरे सबसे बड़े शहर की जनसंख्या के 2 गुने के बराबर है। यह अनुमानित आंकड़े नवंबर 2021 के पहले हफ्ते के हैं – यानि कि त्यौहारी सीजन के।
सर्वजन मास्क प्रयोग के मानकों के अनुसार कम से कम 80% लोगों का मास्क पहनना अनिवार्य है। यानि कि 80% लोगों में मास्क का चलन सर्वजन उपयोग की गुणवत्ता तय करता है। मास्क का चलन इस समय प्रदेश में न्यूनतम पर है। कोविड-19 के मार्च 2020 में प्रदेश में पदार्पण के बाद से यह नवंबर 2021 में एक दहाई प्रतिशत यानी 8% से भी कम है। उत्तराखंड के अन्य शहरों की तुलना में देहरादून में मास्क का चलन सबसे कम पाया गया है जो कि आबादी के हिसाब से काफी चिंताजनक है।
कोविड-19 के नए संक्रमण या लहर की आशंका उत्तराखंड में अन्य प्रदेशों की तुलना में ज्यादा मानी जाती है। प्रमुख कारण उत्तराखंड में धार्मिक एवं प्राकृतिक पर्यटन के साथ साथ शीतकाल में वायरस की प्रसार क्षमता में होने वाला बदलाव है। वायरस ठंड और कम नमी में हवा में ज्यादा देर तक टिकता है। ऐसे में बिना मास्क के लोगों का भीड़ इत्यादि में जुटना वायरस को फैलने में मदद करता है।
मास्क का चलन कम होने से एक और भी चिंता पाँव पसार रही है – वह है ‘फ्लू’ अथवा ‘स्वाइन फ्लू’ के संक्रमण की। फ्लू शीतकाल का मौसमी वायरल संक्रमण है, जिसको बिना जाँच के कोविड से अलग कर पाना कठिन है। हालांकि फ्लू की दवा और टीका दोनों उपलब्ध है किंतु उसकी जागरूकता नहीं के बराबर है। फ्लू का संक्रमण बच्चों, बुजुर्गों और हृदय रोगियों के लिए जानलेवा साबित होता है।
फ्लू और खासकर कोरोना से लड़ाई में मास्क ही अब तक सबसे कारगर हथियार साबित हुआ है। यह एक प्रमाणित सत्य है कि मास्क का प्रयोग न करने वाले दोनों टीके ले चुके लोग भी कोरोना से संक्रमित होते हैं।
रोग विज्ञान के अध्ययन बताते हैं कि कोरोना का वायरस शुरुआत में नाक और गले में पनपता है, जिस दौरान व्यक्ति को किसी प्रकार के लक्षण नहीं होते हैं। संक्रमित किंतु लक्षणरहित, मास्क रहित व्यक्ति अपने सॉस लेने और बात करने के दौरान बनने वाले वातकणों के माध्यम से संक्रमण को दूसरों में फैलाने का काम करता है। निर्लक्षण मरीज बीमार होकर घरों में आराम कर रहे अथवा अस्पतालों में भर्ती मरीजों की तुलना में कहीं ज्यादा संक्रमण का प्रसार करते हैं।
मास्क रहित लक्षण विहीन व्यक्तियों की सार्वजनिक स्थलों में मौजूदगी चिंता का कारण अवश्य है। उत्तराखंड के चुनावी और ठंडे मौसम में कोरोना का यूरोप की भाँति एक नया उपरिकेंद्र बन सकता है।
यूरोप विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार कोरोना की एक नई लहर का उपरिकेंद्र बन रहा है। अक्टूबर-नवंबर के पिछले 4 हफ्तों में यूरोप के देशों में कोरोना के मामलों में 55% तक वृद्धि देखी गई है। टीकाकरण की मंद चाल और मास्क – फ्री जीवन चर्या इसके मूल कारण बताए गए हैं। जर्मनी की अधिकारिक टिप्पणी के अनुसार टीका-वंचित लोगों में वायरस तेजी से फैल रहा है। फ्रांस ने दोबारा से स्कूलों में मास्क अनिवार्य कर दिया है तो वहीं ऑस्ट्रिया और ग्रीस ने सार्वजनिक अधिष्ठानों में वैक्सीन की एक ही डोज लगाने वालों को नेगेटिव रिपोर्ट के बिना निषिद्ध कर दिया है।
यूरोप में जारी कोरोना संक्रमण की स्थिति उत्तराखंड जैसी पर्यटन आधारित अर्थव्यवस्था के लिए आँख खोलने वाली बात है। विशेषकर तब जबकि राज्य में शीत लहर के साथ-साथ चुनावी लहर सामने है और कोरोना की दोनों खुराक लेने वालों का अनुपात सिर्फ एक तिहाई है अर्थात 35% के लगभग।
15 मार्च 2020 को उत्तराखंड में कोरोना के पहले प्रकरण की पुष्टि हुई। पहली लहर में उत्तराखंड को कुछ ज्यादा चोट नहीं पहुँची, किंतु दूसरी लहर के घात के साथ ही मामलों की संख्या एक लाख के पार जा पहुँची। वर्तमान में लगभग 3.5 लाख के आसपास मामले हो चुके हैं। हालांकि विगत कुछ महीनों से कोरोना संक्रमण दहाई अंको के न्यूनतम पायदान पर सिमटा हुआ है। तथापि हम मास्क-फ्री नहीं हुए हैं जैसा कि सार्वजनिक जीवन में देखने में आ रहा है। मास्क केवल स्वास्थ्य कर्मियों और स्कूली बच्चों का सारभूत बनकर रह गया है।
मास्क पहनने के प्रति उदासीन लोगों को दूसरे लहर की भयावहता अवश्य याद करनी चाहिए। जिन्होंने अपनों को नहीं खोया उनके आसपास वो परिचित अवश्य होंगे जो लगातार फेफड़ों के सिकुड़ने की बीमारी से जूझ रहे हैं। मास्क अत्यंत छोटा और सहज कपड़ा है। हेलमेट की भाँति बोझिल नहीं। मास्क की स्वीकार्यता सिर्फ कोरोना नहीं बल्कि कई प्रकार के स्वांस रोगों का प्रतिरोध कर सकती है। मास्क एक सामाजिक दायित्व भी है – दूसरों को स्वयं से सुरक्षित रखना। मास्क के सामाजिक मायने हेलमेट की निजी सुरक्षा से अलग हैं। यहाँ एक नितांत निजी दुर्घटना अपनों और दूसरों को जानलेवा आघात दे सकती है। एक सामाजिक विकार को जन्म दे सकती है।
साभार : डॉक्टर एनएस बिष्ट, एम०डी०
वैयक्तिक फिजिशियन मा० मुख्यमंत्री उत्तराखंड
वरिष्ठ फिजिशियन, जिला चिकित्सालय (कोरोनेशन) देहरादून