अत्यन्त रमणीक व धार्मिक दुर्गम स्थल ‘‘गणनाथ’ – गणों के नाथ
गिरीशं गणनाथं गले नीलवर्णं,
गवेन्द्राधिरूढं गणातीतरूपम्।
भवं भास्वरं भस्मना भूशितांगम्,
भवानीकलत्रं भजे पंचवक्त्रम्।।
गणों के नाथ, अर्थात् भगवान शिव जो कैलाश के स्वामी हैं, नीलकण्ठ हैं, बैल पर सवार हैं, अगणित रूप से युक्त हैं, संसार के आदिकारण हैं, प्रकाश स्वरूप हैं, स्वयं के अंगों को जिन्होंने भस्म से विभूषित किया हुआ है तथा जो माँ पार्वती के पति हैं, उन पंचमुखी महादेव जी का हम भजन करते हैं।
आइये, उक्त प्रार्थना के साथ ही हम प्रसिद्ध ‘‘गणनाथ’’ जी के चरणों में पहुँचने का प्रयत्न करते हैं।
उत्तराखण्ड की विस्तृत व सुरम्य पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य कुमाऊँ-मण्डल अन्तर्गत जिला अल्मोड़ा व बागेश्वर के मध्य उच्च शिखर पर स्थित है अत्यन्त रमणीक व धार्मिक दुर्गम स्थल ‘‘गणनाथ’, जो सदियों से शिव भक्तों के लिये उनकी आध्यात्मिक पिपाशा को शान्त करने का एक प्रमुख केंद्र रहा है।
‘गणनाथ’ के इस अति प्राचीन व पवित्र मंदिर में पहुँचने के मुख्य दो मार्ग हैं। प्रथम तो जिला मुख्यालय अल्मोड़ा से बागेश्वर मोटर मार्ग पर लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ‘‘ताकुला’’ पहुँचा जाता है तथा वहाँ से 2-3 किलोमीटर की दूरी पर मुख्य मार्ग से हटकर एक अन्य वन विभाग द्वारा निर्मित पथरीले व चढ़ाई वाले कच्चे मार्ग के सहारे लगभग 11 किलोमीटर की कठिन यात्रा तय कर यात्री उच्च शिखर पर स्थित मुख्य मंदिर से लगभग आधे किलोमीटर पहले ही अपनी गाड़ी द्वारा लगभग 1 घंटे के अनन्तर ही पहुँचने में सफल होते हैं। इस गहन व चीड़ के वृक्षों से आच्छादित मार्ग में मानव-आकृतियाँ शायद ही दृष्टिगत हों। तदन्तर पत्थर – निर्मित सीढ़ीयों द्वारा नीचे की ओर उतरते ही हमारा लक्ष्य अर्थात मंदिर-कलश से लहराते ध्वज के रूप में एकाएक आँखों के सामने दृश्टिगत हो उठता है, तथा भक्तगण साक्षात् उस परम शक्ति की अनुभूति से अभिभूत हो उठते हैं।
गणनाथ जी पहुँचने का दूसरा रास्ता अपेक्षाकृत कुछ सुगम है, जो अल्मोड़ा-कौसानी मोटर मार्ग के मध्य स्थित स्टेशन ‘‘मनान’’ व ‘‘रनमन’’ के मध्य से निकलता है व जिस पथरीले व कच्चे मार्ग की दूरी लगभग 10 किलोमीटर है। पुल द्वारा कोसी नदी को पार कर हमें मंदिर के लिये ऊँचाई वाले मार्ग पर चढ़ना पड़ता है। स्थानीय ग्रामसभा द्वारा लगभग आधा किलोमीटर का मार्ग सिमैन्टेड भी किया गया है तथा आशा है कि भविष्य में इस मार्ग का और भी सुधार होगा, जिससे गाड़ियों को चढ़ने में यात्रियों के लिये आसानी होगी।
‘‘गणनाथ’’ जी का मुख्य मंदिर एक गुफा की आकृति में है तथा गुफा की मेहराबदार छत से जो प्राचीन वृक्ष द्वारा आवृत्त है, जल की बूंदें निरन्तर गुफा मध्य स्थित प्राकृतिक रूप में निर्मित ‘‘शिव-पिंडी’’ पर गिरती रहती है। समीप ही अति प्राचीन कलाकृतियों से युक्त गणेश-पार्वती व भगवान विष्णु आदि की पत्थर की मूर्तियाँ भी हैं। मंदिर के परिसर में यात्रियों के ठहरने हेतु भवन आदि की व्यवस्था तो है, लेकिन समीप में एक छप्परनुमा चाय की दुकान के अतिरिक्त वहाँ अन्य सुविधायें उपलब्ध नहीं हैं।
मुख्य मंदिर से करीब डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर एक अन्य पर्वत चोटी पर स्थित है ‘‘माँ मल्लिका’’ का दिव्य मंदिर। साक्षात् ‘‘गणनाथ’’ रूप में शिव तथा पार्वती रूप में देवी मल्लिका के इन दिव्य स्थलों से एकाएक स्मरण हो उठता है भारतवर्ष के बारह-ज्योतिर्लिंगों के अन्तर्गत दक्षिण में आन्ध्रप्रदेश के श्री शैलम् पर्वत पर स्थित दूसरे ज्योतिर्लिंग ‘मल्लिकार्जुन’ का, जहाँ पार्वती व शिव अपने रूठे पुत्र कार्तिकेय को मनाने छद्म वेश धारण कर ‘‘मल्लिका’’ व “अर्जुन” के रूप में उपस्थित होते हैं। अतः ऐसी प्रबल धारण है कि ‘‘कैलाश’’ से चलकर शिव-पार्वती ने अपना प्रथम विश्राम इन्हीं चोटियों पर किया हो तथा जो ‘‘गणनाथ’’ व ‘‘मल्लिका’’ के रूप में आज भी श्रद्धालुओं द्वारा पूजित हैं। ‘‘गणनाथ’’ व ‘‘मल्लिका’’ देव-स्थलों पर पहुँचने वाले यात्रियों के साथ अनेक चमत्कारिक घटनायें भी घटित होती रहती हैं। ऐसी ही एक सच्ची व दिव्य घटना का जिक्र हमारी छोटी बहिन द्वारा भी किया गया, जब वह अपने पतिदेव, पुत्र व सास-ससुर के साथ सन् 1992 में गणनाथ से कुछ पहले ही मार्ग भटक गये थे, व अन्ततः जब उन्होंने निराश होकर लौटने का निर्णय लिया तो एकाएक ग्वाले के रूप में वहाँ प्रकट एक बालक ने उनकी उलझन दूर करते हुए मंदिर का मार्ग बता दिया। कुछ ही पलों में जब वे उस दिव्य बालक को धन्यवाद व पारितोषिक देने के लिये मुड़े तो वह अपनी गायों के साथ लुप्त हो गया था।
अतः उस परम् शक्ति के प्रति सच्ची श्रद्धा व विश्वास के कारण ही हमें उनकी अनुभूति होती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने विश्व-प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘‘रामचरितमानस ’’ के प्रारम्भ में माता भवानी व शंकर को श्रद्धा व विश्वास का ही प्रतिरूप बतलाया है, जिनकी कृपा के बिना व्यक्ति अपने हृदयस्थ परमात्मा का दर्शन करने में सफल नहीं हो पाता।
“भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम् ।।”
अतः हमारी देवभूमि उत्तराखण्ड में ऐसे अनेकों दिव्य स्थल हैं, जहाँ पहुँचकर भक्तों के सुप्त आध्यात्मिक भाव जागृत हो उठते हैं। आवश्यकता है कि हमारी सरकार भी ऐसे स्थलों के समुचित विकास के लिये प्रयत्नशील रहे।
साभार:
विश्वम्भर दयाल पण्डे
सहायक अधिशासी अभियन्ता (से. नि.), एम.ई.एस.
सी-99, नेहरू कॉलोनी, देहरादून