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हैंगिंग ग्लेशियर को माना जा रहा है ऋषिगंगा कैचमेंट क्षेत्र से निकली तबाही – केदारनाथ मंदिर के पीछे की चोटी पर भी है हैंगिंग ग्लेशियर

  • हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता को देखते हुए ग्लेशियरों पर नजर रखना आवश्यक है : डॉ0 कालाचांद साईं

आकाश ज्ञान वाटिका, 11 फ़रवरी 2021, गुरुवार, देहरादून। ऋषिगंगा कैचमेंट क्षेत्र से निकली तबाही की वजह रौंथी पर्वत के हैंगिंग ग्लेशियर को माना गया है। यह ग्लेशियर अचानक से टूटकर नीचे आ गिरा था। जिसके चलते उसके साथ बड़े बोल्डर व भारी मलबा भी खिसक गया था। उत्तराखंड में तमाम ग्लेशियरों में इस तरह के हैंगिंग ग्लेशियर मौजूद हैं। प्राकृतिक घटनाओं व भौगोलिक परिस्थितियों के चलते हैंगिंग ग्लेशियर ग्लेशियर बनते हैं और कुछ समय बाद स्वयं टूट भी जाते हैं। इस तरह के ग्लेशियरों के प्रति वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के पूर्व विज्ञानी हिमनद विशेषज्ञ डॉ0 डीपी डोभाल ने आगाह किया है। डॉ0 डीपी डोभाल ने बताया कि कई सालों से केदारनाथ मंदिर के पीछे की चोटी पर भी हैंगिंग ग्लेशियर देखा जा रहा है। वर्ष 2007 में जब वह चौराबाड़ी ग्लेशियर पर अध्ययन पर रहे थे, तब हैंगिंग ग्लेशियर की तरफ से एवलांच भी आया था। जहां भी U-आकार की वैली होती हैं, वहां हैंगिंग ग्लेशियर बनने में मदद मिलती है। इसके साथ ही ढालदार पत्थरों पर भी यह तेजी से बनने लगते हैं।

हालांकि अधिक ऊंचाई पर बनने के चलते हैंगिंग ग्लेशियर आबादी क्षेत्रों से कई किलोमीटर दूर होते हैं। सीधे तौर पर यह आबादी को नुकसान नहीं पहुंचा सकते हैं। फिर भी किसी गधेरे या नदी में गिरने के चलते यह कृत्रिम झील का निर्माण कर सकते हैं। ऋषिगंगा कैचमेंट क्षेत्र में भी इसी प्रकार की स्थिति बनी थी। ऐसी स्थिति बनाने पर बहुत बड़ा खतरा उत्पन्न हो सकता है। उत्तराखंड में ग्लेशियर 3800 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर स्थित हैं और हैंगिंग ग्लेशियर करीब चार हजार मीटर की ऊंचाई पर बनने लगते हैं। इनकी लंबाई उसके आधार या सपोर्ट के कारण कितनी भी हो सकती है, जबकि मोटाई 20 से 60 मीटर तक हो जाती है। निचले आधार के बाद भी यह बाहर की तरफ बढ़ने लगते हैं। जब इनकी मोटाई बढ़ती है या अधिक बर्फ इनके ऊपर जमा होने लगती है तो यह अधिक भार नहीं सहन कर पाते और टूटने लगते हैं।

वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के निदेशक डॉ0 कालाचांद साईं के अनुसार हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता को देखते हुए ग्लेशियरों पर नजर रखना आवश्यक है, उन्हें नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। तथ्य को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2003 में वाडिया में सेंटर फॉर ग्लेशियोलॉजी प्रोजेक्ट शुरू किया गया था। इसके लिए 23 करोड़ रुपये भी दिए गए थे। इसके अलावा केंद्र सरकार ने ग्लेशियरों पर शोध के लिए समर्पित एक अलग एजेंसी की स्थापना देहरादून में करने की बात भी की थी। हालांकि कोरोनाकाल  के चलते अचानक इस प्रोजेक्ट को ही बंद कर दिया गया। वाडिया संस्थान के निदेशक डॉ0 कालाचांद का कहना है कि ग्लेशियोलॉजी सेंटर की उम्मीद अभी भी बाकी है। संस्थान की ओर से इसके लिए प्रयास किए जा रहे हैं। ऋषिगंगा व तपोवन क्षेत्र में आई जलप्रलय के बाद एक बार फिर ग्लेशियरों पर अध्ययन बढ़ाने की जरूरत महसूस होने लगी है।

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Ghanshyam Chandra Joshi

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