ऐतिहासिक धरोहर एवं आस्था का केन्द्र है पिनाकेश्वर(पिनाथ)
- देवभूमि उत्तराखण्ड आज भी अपनी ऐतिहासिक व धार्मिक विरासतों के लिए प्रसिद्ध है । यहाँ पर कई ऐसे ऐतिहासिक धार्मिक स्थल हैं जो लोगों की आस्था के केन्द्र हैं । उन्हीं में से एक है “पिनाकेश्वर (पिनाथ)” ।
कौसानी से कांटली गाँव लगभग नौ दस किलोमीटर दूर एक मंदिर है, ‘पिनाकेश्वर’ जिसे हम स्थानीय लोग ‘पिनाथ’ बोलते हैं। नाम से ही ज्ञात होता है कि कोई शिव मंदिर है। भौगोलिक स्थिति से देखा जाए तो समुद्र तल से करीब आठ हजार फीट की ऊंचाई पर, भटकोट पर्वतमालाओं के बीच बना यह मंदिर चंद वंशजों की देन है। मंदिर में रखे ताम्र पत्रों के अनुसार मंदिर की स्थापना सोलहवीं सदी में चंद वंश के राजा- बाज बहादुर चंद ने की।
हालांकि कौसानी से होते हुए एक सड़क गई हुई है जो आपकी गाड़ी को मंदिर से चंद किलोमीटर दूर तक पहुंचा सकती है। पर कुछ जगहें होती हैं, जहां सड़क से पहुंचा जाए तो वहां जाने का मजा ही बेकार हो जाए… ऐसी ही जगह है #पिनाथ। हम जब भी अपने गांव से मंदिर जाते हैं तो पैदल ही जाते हैं, सफर 8-10 किलोमीटर का हो जाता है। कहीं खड़ी चढ़ाई, कहीं पहाड़ से चिपके पतले रास्ते के दूसरी तरफ गहरी खाई, कहीं चीड़ के पेड़ों की सांय-सांय, तो कहीं रास्ते में बांज, बुरांस, गोंत, काफल, अखरोट आदि जैसे चौड़े पत्ते वाले पेड़ों की ठंडी छाँह।। सामने हिंमगीरियां ऐसे लगती हैं जैसे आप अपना हाथ आगे लम्बा करके पहाड़ों पर टिकी बर्फ को छू लोगे, हालांकि हिंम पर्वत तुमसे कोसों दूर होता है, लेकिन साफ पर्यावण के चलते कोसों की दूरी से देखने पर भी वो बर्फ ओढ़ी चट्टानें सामने प्रतीत होती हैं और उस ओर से अविराम चली आ रही शीतल बर्फ घुली हवाएं आपके लिए ग्लूकोज का काम करती हैं।
इन रास्तों पर चलना जिंदगी को खुलकर जीने जैसा होता है, आप आस्तिक होते हो, मन में भगवान शिव बसे होते हैं, आपको गहरी खाइयों को देखकर एक पल चक्कर आता है, और दूसरे पल आप जोर से जयकार करते हो #हर_हर_महादेव और वो पल भर पहले का डर कहीं डूब जाता है, आप उन रोमांचित पलों को यादों में समेटने के लिए तैयार हो जाते हो और आपके कदम भटकोट के पर्वतों को लांघने में व्यस्त हो जाते हैं।
हमारे पहाड़ी माओं या फिर चरवाहों के लिए ऐसी जगहें कुछ भी नहीं हैं। लेकिन अगर आप शहरी हो, और एक 10-12 किलोमीटर की पथरीली, और चुनौती पूर्ण चढ़ाई(ट्रैकिंग) करना चाहते हो तो यह समय इस प्रकार की चढ़ाई के लिए बहुत अच्छा है।बरसात में जहां रास्ता कीचड़ से चिकना/फिसलन भरा होता है वहीं गर्मियों में चीड़ के पत्तों पर आप रास्तों में फिसल सकते हैं। लेकिन अभी सर्दियों में जमीन चलने के लिए बहुत अच्छी होती है। आप अभी इस जगह आकर मंदिर भी देख सकते हैं और एक रोमांचक पैदल यात्रा को भी जी सकते हैं।
अब एक हद तक पहाड़ों में महिलाओं के लिए श्रम थोड़ा कम हुआ है पर मेरी माँ बताती हैं कि कुछ सालों पहले तक वो और उनकी साथ वाली महिलाएं रोज मंदिर वाली चोटियों के आस-पास की चोटियों में घास काटने आया करती थी। सुबह वहां पहुंचकर सबसे पहले सामने दिख रहे दूर कहीं हिंम जमे चांदी जैसे सफेद खड़े पर्वतों को प्रणाम करती थीं और फिर हम सारी महिलाएं अपने कामों में लग जाते थे। सोचकर ही मेरी हालत पस्त हो जाती है, रोज उतना चढ़ना, फिर घास काटना, और फिर उतना बड़ा हरी(कच्ची) घास का गट्ठर सिर में रखकर वापस दिन के दो-तीन बजे तक घर लौट आना। कितना मुश्किल कठोर जीवन होता होगा। इस सब के बाद भी सारी महिलाएं हंसी खुशी जीती हैं। न माथे में शिकन और न चेहरों में उदासी। मैं इस बात से कभी नहीं मुकर सकती कि पहाड़ को महिलाओं ने जीवित रखा हुआ है। मुझे उन पर गर्व है और इस मिट्टी पर जिसमें मैंने जन्म लिया ।
साभार: श्रीमती गीता जोशी, देहरादून