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गाँव की पुरानी स्मृत्तियाँ – “एक कालखण्ड वह भी था जब गाँव में कई वस्तुओं का अभाव था”

आकाश ज्ञान वाटिका, बुधवार, 24 जून 2020, देहरादून। एक कालखण्ड वह भी था जब गाँव में कई वस्तुओं का अभाव था। बिजली तो दूर की बात माचिस तक नहीं होती थी, अगेले से अग्नि प्रज्वलित की जाती थी। गाँव के अधिकतर लोग किसी अन्य घर से डाड़ू में, सूखी घास के गुच्छे में या किसी हंतर (जीर्ण वस्त्र-खण्ड) में आग माँग कर लाते थे, उसी आग को फूँक-फूँक कर अपने घर में प्रज्वलित करते थे। संचार माध्यम के नाम पर केवल डाक-तार विभाग था। पत्र या तार के द्वारा सन्देश प्रेषित किए जाते थे। यातायात के साधन नहीं थे। गॉंव के लोग वर्ष में एक बार माव (रामनगर/हल्द्वानी) पैदल जाते थे और वर्षभर के लिए कपड़े के थान, गुड़, नमक, मसाले आदि अपने सिर और कन्धों पर ढोकर लाते थे। वर्ष भर के लिए अन्न कृषि उद्योग से प्राप्त होता था, मिट्टी-तेल के अतिरिक्त विपणी जाने की आवश्यकता बहुत कम पड़ती थी।

पढ़ने के लिए सरसों के तेल से जलने वाला दिया होता था, जिसे पानस पर रखा जाता था। कुछ समय पर्यन्त मिट्टी के तेल के दिए और लालटेन का चलन प्रारम्भ हुआ, जिनकी बत्ती घुमा घुमा कर काम चलाते थे। मिट्टी-तेल समाप्त हो जाय तो छिलुक या घर के सरसों के तेल का दिया जलाते थे, कभी-कभी रसोई में चूल्हे के प्रकाश से भी काम चलाते थे।

गेहूँ की रोटी बड़ी वस्तु थी, घर के वरिष्ठों के लिए या पाहुनों (Guests) के लिए ही बनती थी। धान का भात और दाल भी पाहुनों के लिए बनता था। घर की अधिकतर महिलाएँ तो दिन में दाल, चैंस, डुबके या झोई के साथ झुंगरे का भात और रात में घर की क्यारियों या बेलों से उपलब्ध शाक-सब्ज़ी से मडुवा की रोटी या लोहोट ही खाती थीं। दिन के भोजन में कभी-कभी बड़ी कढ़ाई भर कर छछिया या रॉंजड़ भी बनता था। गेहूँ, धान, मडुआ, झुंगरा, थोड़ा बहुत कौणी, मास, गौहत, भट, यही तो गाँव में होता था। गेहूँ, मडुवा इत्यादि को पिसाने के लिए भलीभॉंति बीन कर थैले में रख देते थे, घराट वाला भाई घर से थैला उठाकर ले जाता और शाम को आटा पहुँचा जाता था। गॉंव के ही लोग घट (घराट) चलाते थे।

वर्ष में एक बार पूरे परिवार के लिए वस्त्र सिलने के लिए दर्जी अपनी मशीन के साथ घर पर आता था और २-३ दिन में काम करके चला जाता था, नाई महीने दो महीने में बाल काटने घर पर आता था, लोहार भी दराती, बसुला, चाकू तथा खेती में उपयोग होने वाले उपकरणों को उपयुक्त बनाकर समय समय पर घर पहुँचाता था, रुणियॉं बॉंस के डाले, छाबड़ियॉं, टोकरियाँ, पिटार आदि बनाकर लाता था। गेठी वृक्ष के तनों से छॉंछ फानने वाला डोंकव, दही जमाने वाली ठेकी, कठपाई आदि बनाने के लिए दो-तीन वर्ष के अन्तराल पर चुन्यारा भी आता था। मिट्टी के घड़े, मटपाई, हुक्के आदि लेकर पँजाई (कुम्हार) भी वर्ष में एक बार अवश्य आता था। ये सभी लोग पैसा नहीं लेते थे, कुछ लोग प्रत्येक फसल पर (खौ) अनाज ले जाते थे और और कुछ लोग तत्काल वस्तु के बदले अन्न ले जाते थे। घर में हो रहे उत्सवों के अवसरों पर इन्हें भी बुलाया जाता था, इनकी सम्मान पूर्वक विदाई होती थी। इनमें से कुछ लोग वर्ष में एक विशेष अवसर पर अपनी बनाई हुई वस्तुएँ भी ओग (ओघ = परम्परा tradition) के रूप में लाते थे, जैसे दर्जी की ओर से टोपी और लोहार की ओर से दराती। अत्यन्त सौहार्दपूर्ण दिन थे।

चैंस, डुबके, कापा, पेठे की बड़ी, भट की चुड़काणी, झोई, सुकोट या आलू-प्याज़ की सब्ज़ी, आलू-मूली की भाजी या थेचुवा, उगल, बथुवा, पालक, चौलाई, राई, सरसों, तोरी, लौकी, चिचन्डे, गड़पापड़ इत्यादि की सब्जी ऋतु के अनुसार बनती थी। बेड़ू और तिमिल को राख में उबालकर उसकी सूखी सब्जी भी बहुत स्वादिष्ट बनती थी।

कभी गौहत और भट के डुबके, कभी भट की चुड़काणी, कभी आटे का आलन डली झोई, कभी भात के साथ भुज (पेठा) की बड़ी की रसदार सब्ज़ी, कभी कभी हरी सब्ज़ी का कापा भी बनता था। गौहत-भट का रांजड़, झुंगरे का छछिया भी बनता था। झुंगरे का भात और भड्डू में बनी दाल बड़ी स्वादिष्ट होती थी। कभी भंगीरे की, कभी तिल की, कभी भांग की, कभी कच्चे आम की चटनी नमक, मिर्च, धनियां, लहसुन मिलाकर सिल पर पीसी जाती थी और उसी से रोटी खा लेते थे। कभी कभी जखिया या मेथी से छौंकी गई दाल-सब्ज़ी बनती थी जिसकी क्षुधावर्धक सुगन्ध पास-पड़ोस तक जाती थी। उन दिनों हींग का अभाव था।

रात्रि भोजन के बाद पाटी (तख़्ती) पर तवे का झोल (कालिख) लगाकर रीठे की गुठली से चमकाते थे और कमेटू में धागा डुबोकर पाटी पर पंक्तियाँ डालते थे। बाँस की लेखनी होती थी। ग्रीष्म ऋतु में पाठशाला से लौटते समय गधेरे में बने कुण्ड/खाव में जी भर कर नहाते थे। कभी कभी नदी वाले मार्ग से आते समय नदी में मुक्त मन से तैरते और स्नान करते थे। यदाकदा रामगंगा तट पर स्थित राममन्दिर में प्रात:काल एक लोटा दूध लेकर जाते थे। स्वामी जी से मन्दिर का प्रसाद पाकर प्रसन्न होते थे।

पाठशाला से घर आकर भैंसों को खाव (पोखर) में पानी पिलाने ले जाते और पास के नौले से या धारे से पानी लाते, फिर कुछ खा-पीकर दोपहर बाद गाय, बैल, बकरी चराते थे। शाम ढलने से पहले भाभी या ताई के साथ खेतों में जाकर, घास काट कर लाते थे। भिमुआं (भेकुआ) की शाखाएँ भी काट कर लाते और उनसे पत्ते उतार कर डाले में रखकर भैंस को देते थे। इस चारे से भैंस सरलता से दूध देती थी। खेलों में गुल्लीडंडा, कबड्डी, अड्डू, पुराने चिथड़ों से बनी गैंद, छुपम्-छुपाई ही प्रमुख थे जो सूर्यास्त से पहले या अवकास के दिन ही सम्भव होते थे।

रात में भोजन के बाद जब रसोई में दूध गरम होता था तो चूल्हे के पास बैठ कर दही ज़माने के लिए ठेकी में रखने के बाद, तब तक बैठे रहते थे जब तक हमें बेले (कटोरी) में दूध न मिल जाय। उसके बाद खुरचन की प्रतीक्षा रहती थी। प्रात: छॉंछ फनती थी और गॉंव से कई लोग छॉंछ लेने आते थे।

वर्षा ऋतु में नदी तट पर बने घट (घराट) बह जाने पर घर में ही जानरे से गेहूँ, मडुवे आदि की पिसाई होती थी, ऊखल में धान कुटाई, गॉंव और परिवार की वरिष्ट महिलाओं का स्मरण कराती है। फसल कटने के बाद मढ़ाई का काम घर के प्रागण में बैलों को गोल गोल घुमाकर सम्पन्न होता था। घर में एक तेल निकालने वाला कोल्हू भी था। रवि की फसल के बाद तेल निकलवाने वालों की भीड़ लगी रहती थी। ओखली में बची खल और सरसों के भार के अनुसार तेल भरी पली हमारी होती थी। इस काम को हमारी ताई बड़ी लगन और कुशलता से करती थी। कोल्हू घुमाने का काम ग्राहक ही करता था।

किलमौड़ा, हिसालू, बेड़ू, थैला या लोटा भर-भर कर लाते थे। कभी कभी काफल भी आ जाते थे। पके हुए तिमिल, ख्योंणा और गूलर के फल भी खा लिया करते थे। व्रत त्योहारों में बण से तरूड़ खोद कर लाते थे। वर्षा ऋतु में बण से खोदकर घरगूड़ भी लाते थे, इसकी सब्ज़ी बहुत पौष्टिक और स्वादिष्ट होती थी। मान्यता थी कि बादल गरजने से इस आलू जैसे आकार की प्राकृतिक सब्जी की उत्पत्ति होती है। थैले भर-भर कर लाते थे। जब मात्रा अधिक हो तो इनको काट कर सुकोट भी बनाया जाता था, जिन्हें भिगो कर बहुत स्वादिष्ट सब्ज़ी बनती थी।

बड़े-बूढ़ों की निगाली वाली चिलम की गुड़गुड़ाहट आज भी कभी-कभी कानों में मूर्त हो जाती है। शीतकाल में साँझ के समय गॉंव के सभी वरिष्ठ सदस्य घर में सिगड़ी घेर कर बैठते, चिलम पीते, चाय पीते, एक-डेढ़ घण्टा गपशप करते और फिर अपने-अपने घरों को लौट जाते थे। गाँव में बड़ा सौहार्द था।

गाँव में कोई भी उत्सव होता, उसमें मंगलगान करने वाली महिलाओं के मधुर स्वर, पुरोहित द्वारा मंत्रपाठ से एक मंगलमय वातावरण निर्मित हो जाता था। पारम्परिक वाद्य नगाड़ा, रहौटी, रणसिंगे के स्वर मन को आन्दोलित कर एक नई ऊर्जा भर देते थे। विवाहोत्सव में इन वाद्ययंत्रों का अधिक प्रचलन था, बारात नगाड़े-निशाण और सरंकार-क्रीड़ा के साथ प्रस्थान करती थी। पूरा मार्ग उमंग भरा होता था, संगीतमय रहता था। रात्रिभोज के बाद वधू के घर विशिष्ट लोग विवाह-संस्कार में व्यस्त रहते थे अन्य लोग रातभर भजन कीर्तन के माध्यम से मनोरंजन करते थे। दूसरे दिन प्रात:काल विदाई के समय कुछ दक्षिणा (एक या सम्पन्न घर हो तो दो पैसे) भी मिलती थी। वर के घर दिन में दाल-भात और टप्किया की व्यवस्था होती थी। रसोई पुरोहित ही तैयार करते थे। भोजन तिमिल या मालू के पत्तों से बनाए गए पत्तलों में परोसा जाता था। ऐसे शुभ अवसरों पर गॉंव के लोग सहयोग करते थे, जिन्हें टहलुवे कहा जाता था। तब बिजली नहीं थी, शादी-ब्याह या अन्य किसी उत्सव पर प्रकाश के लिए मिट्टीतेल से जलने वाले गैस प्रयोग में लाए जाते थे, जो हर घर में नहीं होते थे, केवल गॉंव या निकटवर्ती गॉंवों के इने-गिने सम्भ्रान्त घरों से ही उपलब्ध होते थे।

पुष्पों के पर्व फूलदेई के दिन बच्चे प्रात:काल स्नानादि के बाद भाँति-भाँति के पुष्पों से भरी टोकरियाँ लेकर गाँव के सभी घरों के द्वार पर पुष्प बिखेरते थे और उन्हें प्रत्येक घर से उपहार स्वरूप कुछ न कुछ मिलता था। उत्तरायणी, वसन्तपंचमी, होली, घीसंक्रान्त, दीपावली, विजयदशमी इत्यादि पर्व जीवन में एक नई स्फूर्ति भर देते थे। रंग और उमंग का पर्व होली बहुत मनभावन होता था। बैठी होली की रातें संगीतमय होती थीं, होली के गीतों में शास्त्रीय संगीत का पुट भी होता था, गीत रागों पर आधारित होते थे। यह कार्यक्रम कई दिनों तक चलता था। इसके बाद खड़ी होली का आयोजन होता था। अपराह्न में होलियारे पारम्परिक वस्त्रों में एक निश्चित घर पर एकत्र होकर बाजे-गाजे के साथ घर-घर जाते थे, यह क्रम कई दिनों चलता था। अन्तिम दिन होलिका दहन और नदी में स्नान करने के बाद सबको गुड़-तिल बॉंटा जाता था।

वर्ष में एक बार दूरस्थ गॉंवों से भाट (भॉंड) और डँवरिए भी आते थे जो हर घर में जाकर उस घर का महिमामण्डन करते और वहॉं से अन्न आदि प्राप्त करते थे।

अब नगरों-महानगरों का जीवन जी रहे हैं, कभी-कभी मन बड़ा भावुक हो जाता है, ऐसा प्रतीत होता है कि सब कुछ छिन्न-भिन्न हो गया।

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साभार: श्रीमती इन्दु रावत
              शिक्षिका, दिल्ली

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Ghanshyam Chandra Joshi

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