यहां बंद घरों की चौखट पर दम तोड़ती है उम्मीद, जानिए
देहरादून। अपनी उम्र के 18 साल पूरे चुके युवा उत्तराखंड में पलायन के दंश से पार पाने को सरकारी रवायत के बदलने का इंतजार अब भी बना हुआ है। पलायन की मार से पहाड़ कराह रहे हैं तो मैदानी इलाके भी इससे अछूते नहीं हैं। दोनों जगह पलायन के कारण भले ही जुदा-जुदा हैं, मगर इसे थामने की दिशा में सियासतदां ने वह इच्छाशक्ति नहीं दिखाई है, जिसकी दरकार है। यह स्थिति तब है, जबकि गांव की सरकार से लेकर प्रदेश और देश के सर्वोच्च सदन के लिए होने वाले हर चुनाव में पलायन एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरता रहा है। यदि थोड़ी भी गंभीरता दिखाई गई होती तो आज 1702 गांव निर्जन नहीं होते।
बीते एक दशक में 3946 ग्राम पंचायतों से 118981 लोग स्थायी रूप से गांव नहीं छोड़ते और 6338 ग्राम पंचायतों से 383626 लोगों को अस्थायी रूप से पलायन नहीं करना पड़ता। राज्य के पलायन आयोग की ही रिपोर्ट कहती है कि मूलभूत सुविधाओं और शिक्षा-रोजगार के अवसरों के अभाव में गांवों से लोग पलायन को विवश हो रहे हैं। इसी मोर्चे पर सियासतदां को गहनता से मंथन कर गांवों की तस्वीर बदलने पर फोकस करना होगा। यह ठीक है कि इस राह में चुनौतियां भी कम नहीं हैं, मगर इसका रास्ता तो सियासत को ही निकालना होगा।
विषम भूगोल वाले उत्तराखंड से पलायन किस तेजी से हो रहा है, पलायन आयोग की रिपोर्ट इसकी तस्दीक करती है। रिपोर्ट के अनुसार राज्य के गांवों से 36.2 फीसद की दर से पलायन हो रहा है, जो राष्ट्रीय औसत से अधिक है। राष्ट्रीय औसत 30.6 फीसद है। प्रदेश के गांवों से 50.16 फीसद लोगों ने रोजगार, 15.21 फीसद ने शिक्षा, 8.83 फीसद ने चिकित्सा सुविधा, 5.61 फीसद ने वन्यजीवों द्वारा फसल क्षति, 5.44 फीसद ने कृषि पैदावार में कमी, 3.74 फीसद ने मूलभूत सुविधाओं के अभाव और 8.48 ने अन्य कारणों के चलते पलायन किया। पलायन करने वालों में 26 से 35 आयुवर्ग के 42 फीसद, 35 वर्ष से अधिक आयु के 29 फीसद और 25 वर्ष से कम आयु वर्ग के 28 फीसद लोग शामिल हैं।
लोकसभा चुनाव के आलोक में देखें तो सियासी दलों के साथ ही संभावित दावेदारों के साथ ही हर किसी की जुबां पर राज्य के गांवों से निरंतर हो पलायन की बात है। इसे थामने के लिए हर कोई खाका लिए घूम रहा है। मगर पिछले अनुभवों को देखते हुए आशंका के बादल भी कम नहीं है।
राज्य गठन के बाद से अब तक की तस्वीर को ही देखें तो लगभग हर चुनाव में पलायन एक बड़ा मुद्दा रहा है, मगर इसके समाधान के कदम क्या उठाए गए वह जगजाहिर हैं। अब लोस चुनाव में मतदाताओं के दर पर दस्तक देने वाले सियासतदां से लोग सवाल करेंगे ही कि आखिर उन्होंने पलायन थामने को अब तक क्या किया और इस समस्या से निबटने के लिए रोडमैप क्या है। ये भी सवाल उठेगा कि अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटे गांव क्या यूं ही खाली होते रहेंगे। क्या गांवों के लोगों के लिए गांव में ही मूलभूत सुविधाओं के साथ ही शिक्षा एवं रोजगार के बेहतर अवसर नहीं जुटाए जाने चाहिए।