प्राचीनकाल से ही बहुत अधिक माहात्म्य रहा है ‘देवी शीतला माता’ का
आकाश ज्ञान वाटिका, ३० नवम्बर, २०१९, शनिवार।
शीतला माता एक प्रसिद्ध हिन्दू देवी जिसका प्राचीनकाल से ही बहुत अधिक माहात्म्य रहा है। स्कंद पुराण में शीतला देवी का वाहन गर्दभ बताया गया है। ये हाथों में कलश, सूप, मार्जन (झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण करती हैं। इन्हें चेचक आदि कई रोगों की देवी बताया गया है। इन बातों का प्रतीकात्मक महत्व होता है। चेचक का रोगी व्यग्रता में वस्त्र उतार देता है। सूप से रोगी को हवा की जाती है, झाडू से चेचक के फोड़े फट जाते हैं। नीम के पत्ते फोडों को सड़ने नहीं देते। रोगी को ठंडा जल प्रिय होता है अत: कलश का महत्व है। गर्दभ की लीद के लेपन से चेचक के दाग मिट जाते हैं। शीतला-मंदिरों में प्राय: माता शीतला को गर्दभ पर ही आसीन दिखाया गया है। शीतला माता के संग ज्वरासुर – ज्वर का दैत्य, ओलै चंडी बीबी – हैजे की देवी, चौंसठ रोग, घेंटुकर्ण – त्वचा-रोग के देवता एवं रक्तवती – रक्त संक्रमण की देवी होते हैं। इनके कलश में दाल के दानों के रूप में विषाणु या शीतल स्वास्थ्यवर्धक एवं रोगाणु नाशक जल होता है।
स्कन्द पुराण में इनकी अर्चना का स्तोत्र शीतलाष्टक के रूप में प्राप्त होता है। ऐसा माना जाता है कि इस स्तोत्र की रचना भगवान शंकर ने लोकहित में की थी। शीतलाष्टक शीतला देवी की महिमा गान करता है, साथ ही उनकी उपासना के लिए भक्तों को प्रेरित भी करता है। शास्त्रों में भगवती शीतला की वंदना के लिए यह मंत्र बताया गया है:
वन्देऽहंशीतलांदेवीं रासभस्थांदिगम्बराम्।।
मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्।।
अर्थात : गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाडू तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तक वाली भगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं। शीतला माता के इस वंदना मंत्र से यह पूर्णत: स्पष्ट हो जाता है कि ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हाथ में मार्जनी झाडू होने का अर्थ है कि हम लोगों को भी सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए। कलश से हमारा तात्पर्य है कि स्वच्छता रहने पर ही स्वास्थ्य रूपी समृद्धि आती है।
मान्यता अनुसार इस व्रत को करने से शीतला देवी प्रसन्न होती हैं और व्रती के कुल में दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोडे, नेत्रों के समस्त रोग, शीतलाकी फुंसियों के चिन्ह तथा शीतलाजनित दोष दूर हो जाते हैं।
पौड़ी गढ़वाल जिले के कोटद्वार शहर में खोह नदी के किनारे पर स्थित एक प्राचीन एवम् लोकप्रिय दुर्गा देवी मंदिर है | यह मंदिर एक गुफा के अंदर स्थित है। मंदिर को प्राचीन सिद्धपीठों में से एक माना जाता है । दुर्गा देवी मंदिर, कोटद्वार शहर से लगभग 10 कि.मी. और ऋषिकेश शहर से लगभग 110 किमी की दूरी पर स्थित है। यह मंदिर कोटद्वार शहर में पूजा करने के लिए एक महत्वपूर्ण पावन स्थान है। इस मंदिर में माँ दुर्गा पहाड़ में प्रकट हुई थी। आधुनिक मन्दिर सड़क के पास स्थित है परन्तु प्राचीन मन्दिर आधुनिक मन्दिर से थोड़ा नीचे एक 12 फीट लम्बी गुफा में स्थित है। प्राचीन मन्दिर में एक शिवलिंग स्थापित है । मंदिर में, बहुत दूर दूर से भक्त लोग देवी दुर्गा का आशीर्वाद लेने आते है। भक्तों का मानना है कि देवी दुर्गा अपने सभी भक्तों की इच्छाओं को पूरा करती है। भक्तजन विश्वास के लिए मंदिर में लाल चुनरी बाधते हैं। मुख्य मंदिर के ही एक छोटी सी गुफा है जिसमें माँ दुर्गा के दर्शन के लिए भक्तों को लेटकर जाना पड़ता है । दुर्गा देवी के इस मंदिर के सम्बन्ध में कई चमत्कारिक कहानियाँ हैं। इस मंदिर में देवी माँ के चट्टानों से उभरी एक प्रतिमा है और अन्दर एक ज्योति है, जो कि सदैव जली रहती है। स्थानीय लोगों के अनुसार आज भी कई बार माँ दुर्गा का वाहन “सिंह या शेर” मंदिर में आकर देवी दुर्गा के दर्शन कर शांत भाव से लौट जाता है। कहा जाता है कि मंदिर प्राचीन समय में बहुत छोटे आकर में हुआ करता था किन्तु दुगड्डा कोटद्वार के बीच सड़क निर्माण कार्य में व्यवधान आने पर ठेकेदार द्वारा भव्य मंदिर की स्थापना की गई तो कार्य तेजी से संपन्न हुआ। इस मंदिर के दर्शन करने के बाद आपके सारे रुके हुए काम पूरे हो जाते हैं। चैत्रीय व शारदीय नवरात्र पर मंदिर में भक्तों या श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है और इस दौरान यहाँ कई श्रद्धालु भण्डारे का आयोजन करते हैं। श्रावण मास के सोमवार और शिवरात्रि को बड़ी संख्यां में शिवभक्त यहाँ भगवान शिवजी का जलाभिषेक करने आते हैं। यहाँ स्थित गुफा में दीर्घकाल से ही निरंतर एक धूनी जलती रहती है। मान्यता है कि अनेकों बार माँ दुर्गा का वाहन सिहं मन्दिर में आकर माँ दुर्गा के दर्शनकर शान्त भाव से लौट जाता है। मन्दिर के आसपास हरेभरे जंगल व नीचे नदी के किनारे विशाल चट्टानें इस स्थान की सुन्दरता पर चार चांद लगा देती हैं। यहाँ रोज ही भक्तजनों की आवजाही लगी रहती है, लेकिन सप्ताह के अन्त में यहाँ नदी किनारे पर्यटन हेतु काफी लोग आते हैं ।
ग्वालियर शहर से लगभग २० किलोमीटर दूर स्थित सांतऊ स्थित शीतला माता लगभग पिछले चार सौ सालों से भक्तों की मुराद पूरी करती चली आ रही हैं। ग्रामीणों का कहना है कि माता की महिमा है कि तब से लेकर अब तक सांतऊ व आसपास के गांवों में माता की कृपा से खुशहाली है। जब यहाँ जंगल था तब माता के दर्शन करने शेर आते थे। ये शेर किसी भी ग्रामीण को नुकसान नहीं पहुंचाते थे। शीतला माता को डकैत ही नहीं पुलिस वाले भी बहुत मानते थे। इसका प्रमाण यहां अंचल के कुख्यात डकैतों के साथ-साथ, पुलिस वालों द्वारा घंटे चढ़ाए गए हैं।
मंदिर के पुजारी महंत नाथूराम के अनुसार उनके पूर्वज महंत गजाधर सांतऊ ग्राम में रहते थे। वे गोहद के पास स्थित खरौआ जाते थे और उस गाय के दूध से माता का अभिषेक करते थे। माता रानी महंत गजाधर की भक्ति से प्रसन्न होकर कन्या रूप में प्रकट हुईं और बोलीं कि वह उनकी भक्ति से प्रसन्न हैं और वह अपने साथ उन्हें ले चलें। माता ने खरौआ गांव वालों को भी बुलाने के लिए कहा। गजाधर ग्रामीणों को बुला लाए। खरौआ गांव वालों ने माता के साक्षात दर्शन किए । माता ने ग्रामीणों से कहा कि वह गजाधर के साथ जा रही हैं। यह सुनकर मंदिर का पुजारी द्वार पर लेट गया और बोला माता तुम्हें जाना है तो मेरे ऊपर पैर रखकर निकल जाओ। तभी अचानक मंदिर के पीछे की दीवार फट गई और माता मंदिर से बाहर निकल आईं। गजाधर ने माता से कहा कि उनके पास कोई साधन नहीं है वह उन्हें अपने साथ कैसे ले जाएं। तब माता ने कहा कि वह जब उनका सुमिरन करेंगे प्रकट हो जाएंगी। गजाधर ने अपने गांव पहुंचकर माता का सुमिरन किया तो माता प्रकट हो गई और उन्होंने ग्रामीणों को भी दर्शन दिए। दो साल गांव में रहने के बाद माता ने गजाधर से मंदिर बनवाने के लिए कहा। गजाधर ने माता से कहा कि वह जहाँ विराज जाएंगी वहाँ मंदिर बना दिया जाएगा। माता पहाड़ी पर विराज गईं। महंत गजाधर की पांचवीं पीढ़ी के नाथूराम यहां पूजा-अर्चना करते हैं। गाँव वालों का कहना कि पहले यहाँ माता की पूजा करने के लिए दो शेर आते थे जो किसी को भी नुकसान नहीं पहुंचाते हैं।