विश्व के समक्ष पर्यावरण प्रदूषण की समस्या दिन-प्रतिदिन गंभीर रूप धारण करती जा रही है, जिसका कारण बढ़ती हुई जनसंख्या तथा घटती हुई वनस्पति है। वनस्पति और जीव-जगत का अभिन्न संबंध है, इनकी पारस्परिक उपयोगिता पर ही इनका कल्याण निर्भर है। इसके लिए हमें वनस्पति के विषय में गंभीरतापूर्वक सोचने की आवश्यकता है। कुछ कहने से पूर्व मुझे राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त की सुविख्यात पुस्तक ‘भारत भारती’ की पंक्तियाँ याद आ रही हैं:-
हाँ और ना भी अन्यजन, करना न थे जब जानते,
थे ईश के आदेश से हम वेदमंत्र बखानते ।
जो थे हजारों वर्ष पहले जिस तरह हमने कहें,
विज्ञान वेत्ता अब वही सिद्धान्त निश्चत कर रहे ।।
आज विश्वभर में पर्यावरण संरक्षण हेतु, वृक्षारोपण संवर्धन एवं संरक्षण के लिए हर देश चिन्तित हैं। इसके लिए नई – नई वैज्ञानिक पद्धतियाँ तथा तकनीक का सहारा लिया जा रहा है। पृथ्वी का जो रूप जीवधारियों के रहने योग्य बना उसकी संरचना में हजारों वर्ष लगे। दीर्घकालिक प्राकृतिक रचना प्रक्रिया के बाद ही पृथ्वी पर पारिस्थितिक संतुलन हो पाया तथा वसुन्धरा प्राणिमात्र और वनस्पति का आधार बनी। पृथ्वी पर जीवन योग्य परिस्थितियों को प्रकृति चक्र कहा जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार वायुमण्डल के जिस घेरे से जीवधारियों को हवा मिलती है, उसे स्ट्रोपोस्फीयर कहते हैं। यह पृथ्वी का निकटतम रक्षक घेरा है। सौर ऊर्जा छन कर उपयुक्त मात्रा में इससे होकर आती रहती है। इसके बाद दूसरी परत स्ट्रेटोस्फीयर कहलाती है और अन्तिम परत आयनोस्फीयर की है। आयानोस्फीयर का यह कवच अन्तग्र्रहीय हानिकारक किरणों से पृथ्वी के जीवधारियों की रक्षा करता है। सूर्य से निसृत प्रचण्ड ऊर्जा तथा अन्य ग्रहों से आने वाली हानिकारक किरणों से पृथ्वी की रक्षा यह कवच करते हैं। वायुमण्डल में स्थित इस नैसर्गिक संरचना ने ही पृथ्वी पर जीवनदान दिया अन्यथा पृथ्वी भी दूसरे ग्रहों की भाँति वीरान होती । मानव के लिए वरदान स्वरूप पृथ्वी के साथ अत्याधिक छेड़छाड़, भूसम्पदाओं का अशास्त्रीय, अवैज्ञानिक दोहन करना सर्वदा अनैतिक एवं विनाशकारी हैं। निरंतर बढ़ते हुए औद्योगीकरण से वायुमण्डल, जलाशय, पावन नदियाँ तथा वनस्पति बूरी तरह प्रभावित होते जा रहे हैं । अधिक उत्पादन के लिए कृत्रिम रसायनों का, कीटनाशकों का अधिक उपयोग करने से भूमि की उर्वरा शक्ति में दुष्प्रभावी परिवर्तन हो रहे हैं। भोगवादी संस्कृति और नई सभ्यता जिस भौतिकवादी दृष्टिकोण को अपनाकर विकासोन्मुख हो रही है । वह मानव के वास्तविक कल्याण के लिए श्रेयस्कर नहीं है ।
भारतीय संस्कृति आरंभ से ही महान रही है। वैदिक काल से ही प्रकृति एवं वनस्पति पूजन की परम्परा चली आयी है । ”वसुधैव कुटुम्बकम्“ तथा सर्वेभवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः“ की भावना में सार्वभौमिक कल्याण कामना है। प्रकृति प्रेम, वनस्पति पूजन, आस्तिकता या धर्म का जो भी भाव या दृष्टांत रहा हो, वह कोरा मिथक या काल्पनिक कथायें नहीं हैं अपितु प्राचीन भारतीय जीवन दर्शन में मनीषियों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण होने से प्रकृति पूजन को इसलिए महत्व दिया गया कि प्रकृति हमारी संरक्षिका रही है व हमारा जीवन ही प्राकृतिक उपादानों पर निर्भर रहता आया है। मानव प्रकृति का सम्पूर्ण उपभोग करता है। यह उपभोग उसके अपने भरण पोषण तक सीमित होना वांछनीय है। ईशावास्योपनिषद् में लिखा हैं:-
“ईशावास्यमिंदसर्वं यक्तिञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।”
संक्षेप में इसका अर्थ यों हुआ, ‘संसार में जो कुछ भी है उसमें ईश्वर का निवास हे। इससे त्यागपूर्वक उपभोग करना चाहिए । लालच मत करो ।’
किन्तु आज पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हमारा मन अपनी मूल संस्कृति को भूल चुका है, फलतः प्रकृति में विद्यमान अधिदैविक शक्ति को उपेक्षित कर आदिभौतिक शक्ति की महत्ता को समझकर अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए प्रकृति से अधिकाधिक लाभ पाना चाहते हैं। कम समय में कम प्रयास से अधिक पाना चाहते हैं जोकि सर्वथा अवैज्ञानिक है। भौतिक दृष्टि से या व्यावसायिक दृष्टि से भले ही यह सही हो किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि प्रकृति में असन्तुलन उत्पन्न कर हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए जो कर रहे हैं वह बचपन में पढ़ी कथा की भाँति तो नहीं ? ‘‘एक मौलवी था उसके पास एक मुर्गी थी जो रोज सोने का अंडा देती थी। मौलवी उसे बेचकर अपना तथा परिवार का पालन करता था। एक दिन उसने सोचा कि एक-एक अण्डे से तो थोड़ा धन मिलता है। क्यों न मैं एक ही दिन में सारे सोने के अण्डे पाकर मालामाल हो जाऊँ और भविष्य में सुख से रहूँ। यह विचार आते ही उसने तेज चाकू से मुर्गी का पेट काट डाला, खून की धारा बह चली, अण्डा एक ना मिला, मुर्गी मर गई और मौलवी सर पीटने लगा ।’’
प्राकृतिक उपादानों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हमारे वृक्ष हैं । वनस्पति की महिमा को समझते हुए हमारे ऋषिमुनियों ने सतत साधना एवं शोध आधारित वृक्षविज्ञान पर अनेक ग्रन्थ लिखे। भगवान कश्यप ने ‘काश्यप-संहिता’ में वृक्षायुर्वेद की रचना की है, जिसमें उन्होंने विभिन्न प्रकार की कृषि और वृक्षों का विज्ञान बताया है। अनुचित और अनियम से वृक्षछेदन से उभयलोक दुर्गति होती है। वनस्पति हत्या के भ्रूण पाप द्वारा वंशविनाश होना बताया गया है। ऋषि कश्यप ने धार्मिक जीवन निर्वाह के लिए सम्पूर्ण स्थापत्य, वाक्र्ष, वानस्पत्य विज्ञान को दर्शाया है, जो पूर्णतया पौर्वात्य संस्कृति पर आधारित है। उस विज्ञान द्वारा न केवल आधिभौतिक सुख और आवश्यकातओं की पूर्ति होती है अपितु आधिदैविक रक्षण पूर्वक वनस्पति का उपभोग करना दर्शाया गया है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने ”इन्धनार्थे द्रुमःक्षेदः’’ पाप बताया है। किन्तु मुनि कश्यप ने बताया है कि देववृक्ष, तीर्थस्थान के और स्वस्थ्य युवा वृक्षों को छोड़कर हवा से गिरे या सूखे वृक्षों को आवश्यकता-पूर्ति हेतु ले सकते हैं।
वृक्षारोपण के लिए रोहिणी, मृगशीर्ष, आद्रा, पुनर्वसु अनुराधा, रेवती, मूल, श्रवणहस्त नक्षत्रों को प्रशंसनीय बताया गया है। इसी प्रकार बीज बोने से पूर्व भूमि का संस्कार करने की अर्थात भूमि को शोधित करना बताया गया हैं-
“चिर्भूत्वा तरोः पूजां कृत्वा स्नानानुलेपनैः ।
रोपयेत रोपितांश्चैव पत्रैस्तैरवे जायते ।। 1।।
मृद्वी भू सर्ववृक्षाणां हिता तस्यां तिलान् वपेत ।
पुष्पितां तांश्च मृद्वीयात, कर्मैतप्प्रथमं भुवः ।।2।।”
स्नान अनुलेपनादि से पवित्र होकर वृक्षारोपरण करें, भूमि को खोद कर पत्थर साफकर सर्वप्रथम तिल बोवें। जब तिल के पौधे पुष्पित हो जायँ, तब हल लगाकर उन पौधों को उस जीमन में उलट-पलट कर चूर देना यह भूमि का प्रथम संस्कार है इससे पृथ्वी की उर्वरा शक्ति का विकास होता है। इसके पश्चात् ही खेती की जाय।
पश्चिमी कृषि विज्ञान के आधार पर कृत्रिम रसायनों का उपयोग कर यद्यपि कम समय में अधिक उपज तो ले सकते हैं किन्तु भूमि की उर्वरा शक्ति अल्पकालिक हो जाती है और ऐसी भूमि शीघ्र ही ऊसर- बंजर हो जाती है। प्रत्येक वस्तु में विद्यमान आधिदैविक तत्व की रक्षा करने से भले ही आधिभौतिक लाभ न हो किन्तु अन्न को ब्रह्मस्वरूप कहा गया है, जिससे जीवन में बल, विवेक और ओज की वृद्धि होती है। हमारे प्राचीन ग्रन्थों में पावन परिवेष की कल्पना के साथ ही भूमि विज्ञान के अनुसार भूमि का उपयोग किया जाना बताया गया है जिससे मनुष्य निरोग, ओजस्वी, वीर्यवान तथा समर्थ हो तथा भू सम्पदा के उपयोग के फल आधिदैविक गुण परक हों। वृक्षारोपण के विषय में मुनिवर कश्यप कहते हैं कि बगीचे में सर्व प्रथम इन वृक्षों को लगाना चाहिये:-
अशोकचम्पकारिष्टपुन्नागाश्च प्रियंगव ।
शिरीषोदुम्बराः श्रेष्ठाः पारिजातकमेव च ।।
एते वृक्षाः शुभाः ज्ञेयाः प्रथम तांश्च रोपयेत् ।
अशोक चम्पा अरष्टि, पुन्नाग प्रियंगु, शिरीष, उदूम्बर तथा पारिजात, इन वृक्षों को पहले लगाना चाहिये, ये वृक्ष शुभ जाने जाते हैं। इनमें देवताओं का निवास होता है।
वृक्षों की कलम तैयार करने की विधि, उनके रोपण की विधि, रोगनिवारण तथा उपचार, अधिक व पुष्ट फलपाने के सभी उपाय विषय विस्तृत रूप से काश्यप संहिता में वर्णित हैं। कहने का आशय यह है कि आदि काल से ही हमारे विद्वान ऋषिमुनि, वनस्पतिशास्त्र के ज्ञाता होने के साथ प्रच्छन्न रूप से पर्यावरण के प्रति भी सचेष्ट रहे हैं, प्राकृतिक सिद्धान्तों का आधार लेकर तथा उनका पालन व निर्वाह करते हुए वाराहमिहिर याज्ञवल्क्य, विश्वकर्मा आदि के अतिरिक्त और भी न जाने कितने कितने मनीषियों ने अपने समय में कितना ज्ञान दिया।
महाकवि कालिदास की कृति “अभिज्ञान शाकुन्तलम्” में तो प्रकृति से इतनी तादात्म्यता दिखाई गई है कि शकुन्तला (नायिका) किस प्रकार पौधों, वृक्षों और तलावल्लरियों से स्नेह करती है ।
पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्याष्वपीतेषु या ।
नादते प्रिय मण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम् ।।
शकुन्तला पौधों को पिलाने से पूर्व स्वयं जल नहीं पीती । अपने प्रिय आभूषण होने पर भी स्नेहवश फूल पत्र धारण नहीं करती । विवाहोपरान्त विदा के समय महर्षि कण्व उसे प्रिय लतापादपों से विदा की अनुमति लेने को कहते हैं तो प्रत्युत्तर में कोयल की कूक सुन कर मानो शकुंतला को पतिगृह जाने की अनुमति प्राप्त हो गईः-
अनुमत गमना शकुन्तला तरूभिरियं वनवास बन्धुमिः ।
परभृत विरूतं कलं यथा प्रतिवचनी कृतमेभिरीदृशम् ।।“
आश्रम में पशु पखी निर्भीक घूमते हैं वहाँ आखेट करने की आज्ञा स्वयं राजा को भी नहीं । इसी आश्रम में पराक्रमी सम्राट भरत का जन्म होता है जो बचपन से सिंह शावकों से खेलते थे और बड़े प्यार से गोद में बैठाकर उनके दाँत गिनते थे उन्ही के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा । नैसर्गिक वातावरण में ही जीवन का सहज और उन्मुक्त विकास सम्भव है। अतः वेदकाल में देवताओं की उपासना के साथ वनस्पति देवता की उपासना के स्तोत्र भी प्राप्त होती है ।
“माध्वी नः सन्तु औषधीः मधुमान में वनस्पतिः ।”
“औषधि हमारे लिए मधुरस समान हो तथा वनस्पति मधुरसमयी हो।”
समुद्र मन्थन में कल्पवृक्ष और धन्वंतरी (भिषकाचार्य) का प्रकट होना भी वनस्पति की महिमा को उजागर करता है।
मानव जाति की प्राणरक्षा हेतु आयुर्वेद के ग्रन्थों की रचना वनस्पति सृष्टि के आधार अर्थात वृक्ष विज्ञान को गुणावगुण के आधार पर ही की गई है। भारतीय संस्कृति और वनस्पतियाँ परस्पर मणिकञ्चनमाला सी गुँथी हुई हैं। किसी नये कार्य का शुभारंभ होगा तो गणेशपूजन के लिए दूर्वा, पान, सुपारी, आम के पत्ते चाहिए। बासन्ती नवरात्र में देवी पूजन जौ वपन के आरंभ होगा । सौभाग्याकाक्षिणि स्त्रियाँ जेठ मास में वट वृक्ष का पूजन करेंगी, वर्षा ऋतु में तो आम-नीम के झूले मेंहदी रचे हाथ और गीतों के स्वर होंगे शिवालयों में बिल्वपत्र धतूरा और फलों के ढेर लगे होंगे, भाद्रपद मे श्री कृष्ण जन्म के साथ कुञ्ज, कदम्ब, बांस स्वतः याद आएंगे, अश्विन मास में पीपल – मालू के वृक्ष लता अवश्य चाहियें पितृपूजन हेतु, शारदीय नवरात्र में नारियल (श्रीफल) जवापुष्प, जया कुन्द, दीपावली पर शेवन्ती, गेन्दा, ईख की आवश्यकता होगी । माघ-फाल्गुन में तिल-सरसों, टेसू-पलाश विविध वर्णों के पुष्पों द्वारा होली के रंग और गीतो की मधुर ध्वनि सर्वत्र व्याप्त होगी । आँवला, केला, अशोक जितने नाम लिये जायँ कम हैं। भारतीय संस्कृति और वनस्पति तो मानों एक दूसरे के पर्याय हैं। उत्सव के साथ-साथ खान-पान की पद्धति में पूर्ण रूप से वैज्ञानिक दृष्टिकोण रहा है। किस ऋतु में कौन सा भोजन सुपाच्य और स्वास्थ्यवर्धक है वही पकवान बनाने की प्रथा रही है । उदाहरण के लिए – ग्रीष्म ऋतु में जौं का सत्तू, शीत ऋतु में तिल के लड्डू तथा गुण से बने खाद्य – पदार्थ रेवड़ी, गुड़पट्टी इत्यादि ।
एक छोटा सा पौधा, तुलसी (लगभग हर घर में उपलब्ध होने वाला) तो वातारण शोधन में यदि वैज्ञानिक दृष्टि से अवलोकन किया जाय तो अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जहाँ-जहाँ तुलसी की अधिकता होगी उन स्थानों पर मच्छर तथा अन्य कई प्रकार के रोगाणु नहीं होते । तुलसी में रसायनिक विशेषताओं के साथ ही ऐसी सूक्ष्म कारण शक्ति भी है जो मानसिक एवं भावात्मक क्षेत्रों को भी प्रभावित करती है। इसी कारण तुलसी को देवतुल्य मान कर स्थापना से लेकर पूजन-अर्चन तक विस्तृत महात्म्य माना गया है। तुलसी आरोग्यवर्धक और रोगशामक भी है। तुलसी की सूक्ष्म शक्ति, सौम्य, सात्विक, पवित्र, कोमल एवं भावुक होती है। प्रचलित औषधियों के समान तुलसी में मारक गुण नहीं होता ।
वनस्पति की उपयोगिता और उसकी जीवन्तता को समझते हुए पहले हर घर में अनुशासन था कि साँझ होने पर फूल पत्ते न तोड़े जायँ, पौधे सो चुके हैं। नोबल पुरस्कार विजेता डॉ0 जगदीश चन्द्र वसु ने भी यही सिद्ध किया था कि वनस्पति में भी जीवन है। नदी में स्नान करना हो तो जूते चप्पल दूर रखे जाय, नदी में थूकें नहीं, साबुन से कपड़े न धोयें। मुझे अच्छी तरह याद है कि पहले इस अनुशासन का पूरा पालन होता था। नदी के ही जल से सूर्य को स्वयं नदी को अघ्र्य देने की परंपरा तो आज भी चली आ रही है। पवित्र गंगा को तथा अन्य बहुत सी नदियों, जलाशयों को अब भी पूजा जाता है। महान वैज्ञानिक डॉक्टर जगदीश चन्द्र वसु ने तो सप्रमाण वनस्पति का जीवित होना सिद्ध किया था। पौराणिक ग्रन्थों में भी वनस्पति चैतन्य मानी गई है। जब सारी सृष्टि प्रलय में डूब गई तो एक वट वृक्ष शेष रह गया जिसके पत्ते पर भगवान श्री बालकृष्ण पैर का अंगूठा चूस रहे थे। उनके इस रूप की वन्दना महर्षि मार्कण्डेय ने इस प्रकार की:-
करारविन्देन पदारविन्दं ! मुखरविन्दे विनिवेशयन्तम्।
वटस्य पत्रस्य पुटे शयांन । बालंमुकुन्दं मनसा स्मरामि।।
मार्कण्डेय महर्षि को तो अमर माना जाता है। तात्पर्य यह है कि भारतीय जीवन तथा संस्कृति को रसमय बनाने का श्रेय उसकी नैसर्गिकता और पर्यावरण को रहा है। जो ऋषिमुनियों के सतत् साधना से उत्पन्न वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाते रहे है ।
श्रीमती वीणापाणी जोशी
पूर्व सदस्य ”उत्तराखण्ड संस्कृति, साहित्य एवं कला परिषद“
गोपाल कुन्ज 26/7, इन्द्रपथ, देहरादून
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