कैलाश मानसरोवर
स्वर्णिम कमल-पंखुडि़यों की भाँति, विस्तृत व उच्च हिम-शिखरों में अग्रणी ‘कैलाश’, निज अंक में ‘मानसरोवर’ को समेटे, समाधिस्थ अवस्था में अनादिकाल से ही अनवरत आध्यात्मिक-उर्जा के सृजन द्वारा सम्पूर्ण-सृष्टि का संरक्षण कर रहा है।
‘‘जो ब्रह्माण्डे-सोई पिण्डे’’, अर्थात् जो कुछ भी इस ब्रह्माण्ड में है, वह सब मानव-शरीर रूपी पिण्ड में भी विद्यमान है। इसी सिद्धान्त के अनुरूप, ‘कैलास-मानसरोवर’’ की संरचना, मानव-मन में भी उपलब्ध है। तदनुसार, व्यक्ति के ‘मन रूपी सरोवर’ (मानसरोवर) में ‘‘केवल-लास्य’’ (कैलाश) अथवा ‘‘मात्र-आनन्द’’ का भाव ही ‘‘कैलाश-मानसरोवर’’ का तात्विक अर्थ है, जिसकी सतत अनुभूति द्वारा जीव को परमात्म-तत्व की प्राप्ति सम्भव है। ‘कैलाश’ में निरन्तर प्रवाहित होने वाले इसी आनन्दमय भाव के फलस्वरूप ही सम्भवतः एक दूसरे के प्रति शत्रुता रखने वाले जीव, अर्थात् गणेश-वाहन मूषक, शिव अंग से लिपटे सर्प, कार्तिक-वाहन मयूर तथा शिव-पार्वती के वाहक वृषभ (बैल) व सिंह, पारम्परिक कटुता भुलाकर प्रेम-मय वातावरण में साथ-साथ निवास करते हैं। अपनी अनुपम रचना ‘मेघदूत’ के माध्यम से कविवर कालीदास, ‘‘कैलाश’’ के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए स्पष्ट करते हैं कि कुमुद-पुष्प की भाँति हिम-मंडित श्वेत उच्च-शिखर के माध्यम से विस्तृत नभ-मंडल को अपने में समेटे ‘कैलाश’’ इस भाँति अडि़ग खड़ा है, मानो यह त्रिनेत्र-धारी शिव के दिन-प्रतिदिन के आनन्द-जनित अट्टहास की राशि का ही ऊँचा ढेर होः-
‘श्रृङ्गोच्छायै कुमुदविशदैर्यो,
वितत्य स्थितः खं।
राशीभूतः प्रतिदिनमिव,
त्र्यम्बकस्याट्टहासः।।’
समुद्र-तल से 22,028 फीट ऊँचे कैलाश को पुराणों में सृष्टि के केन्द्र में स्थित मेरू-दण्ड स्पाइनल कॉर्ड)की संज्ञा दी है, जिसके चारों ओर ब्रह्माण्ड परिभ्रमण कर रहा है। लगभग तीन करोड़ वर्ष प्राचीन हिम-पिरामिड कैलाश व मानसरोवर झील एवम् शिव-पार्वती की यह क्रीड़ा-स्थली, उत्तराखण्ड के सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ के अन्तिम यात्रा पड़ाव ‘लिपूलेख’ से 50 कि.मी. तथा तिब्बत की राजधानी ल्हासा से 1200 किलोमीटर पश्चिम की ओर स्थित है। विराट ‘शिव-लिंग’ की आकृति धारण किए हुए कैलाश की परिक्रमा परिधि सरकमफेरैन्स)लगभग 54 कि.मी. है, जिसके अन्तर्गत 19,200 फीट की ऊँचाई पर स्थित ‘डोल्मा-दर्रा’(डोल्मा पास)भी सम्मिलित है।
यद्यपि कैलाश-मानसरोवर चीन में स्थित है, लेकिन प्राचीन-काल से ही इसका पावन व विस्तृत क्षेत्र हिन्दुओं, बौद्धों, जैनियों तथा तिब्बती लामाओं का तीर्थ-रूप में आस्था का प्रमुख केन्द्र रहा है। इसी कारण, कैलाश-मानसरोवर के दर्शन व परिक्रमा हेतु श्रद्धालुओं की अनवरत यात्रा जारी रहती है। हिन्दुओं के पावन ग्रन्थ रामायण के अनुसार तो जिस किसी भी व्यक्ति का शरीर यहाँ की पवित्र धरती से स्पर्श कर जाता है अथवा जो कोई भी मानसरोवर में स्नान कर लेता है, उसे परम-तत्व की प्राप्ति अवश्य होती है। जैनियों के अनुसार, प्रथम तीर्थांकर ऋषभ-देव को कैलाश में ही निर्वाण प्राप्त हुआ था। बौद्धों की मान्यता है कि गर्भ-धारण करने पूर्व बुद्ध, श्वेत-मेघ के रूप में कैलाश-शिखर पर उदित हुए थे तथा कैलाश का परिक्रमा क्षेत्र पाँच बौद्ध-मठों (गोम्पाओं) से आवृत्त है। बुद्ध-पूर्व, तिब्बत में प्रचलित ‘बोनपा’ धर्म-गुरूओं (लामाओं) के अनुसार, ‘कैलाश’ नौ-मंजिला ‘स्वस्तिक शिखर’ के रूप में पृथ्वी का मर्म-स्थल (हृदय) है। कैलाश के निकट रहने वाली ‘रंङ़’ नामक जनजाति अपने आराध्य शिव की ‘स्याङसै’ नाम से आराधना करती है तथा स्थानीय भाषा के अनुसार ‘स्याङ’ का अर्थ है ‘महा’ तथा ‘सै’ ‘देव’ को कहते हैं। इस प्रकार ‘स्याङसै’ का तात्पर्य है ‘महादेव’, जो शिव का ही पर्याय है। कैलाश के निकट ‘शैवों’ का एक अन्य धार्मिक स्थल तीर्थ-पुर’ भी है, जहाँ शिव ने ‘भस्मासुर’ का संहार किया था। पवित्र ‘शिव-लिंग’ की आकृति को धारण किए कैलाश की निम्न, मध्य व ऊपरी सतहें, क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु तथा रूद्र इन त्रिदेवों को परिलक्षित करते हुए सृष्टि के उत्पादक, पालक तथा संहारक के रूप में प्रतिश्ठित हैं। पुनः कैलाश की ऊपरी सतह की तीन समानान्तर रेखाएँ मानो शिव-भाल पर अंकित त्रिपुण्ड-रूप में तीन लोकों (पृथ्वी, आकाश व पाताल) अथवा तीन गुणों (सत, रज व तम) अथवा शिव के तीन नेत्रों (सूर्य, चन्द्र व अग्नि) का परिचायक हैं।
‘कैलाश-शिखर’ की चारों सतहें भी चारों-दिशाओं के भिन्न-भिन्न भावों को अपने में समेटे हुए हैं। तद्नुसार, हिमाच्छादित सीढ़ीनुमा दक्षिणी-पाश्र्व न्याय व भव्यता को, उत्कण्ठा से पूर्ण पश्चिमी-पाश्र्व समपर्ण को, उत्तरी पाश्र्व करूणायुक्त क्षमा-भाव को तथा पूर्व-पाश्र्व, सृष्टि के कण-कण में व्याप्त चैतन्यता को दर्शाता है।
कैलाश-परिक्रमा क्षेत्र के उत्तरी छोर पर निर्मल व हरीतिमा धारण किए जल से परिपूर्ण ‘गौरी-कुंड’ की भव्यता दूर से ही अपनी ओर आकर्षित करती है। कैलास से लगभग 30 कि.मी. दूर उसकी गोद में जहाँ एक ओर निर्मल-शान्त व विस्तृत जल वाली 22 कि.मी. चैाड़ी व लगभग 72 कि.मी. घेराव (Circumference)लिए आकर्षक ‘‘मानसरोवर झील’’ है, वहीं कैलाश के दक्षिण छोर पर तैरते-हँसों से शोभित ‘‘राक्षस-ताल’’ (राकस-ताल) अथवा ‘रावण-हृद’ नामक सरोवर है। 14,950 फीट की ऊँचाई पर स्थित ‘मानसरोवर’ पुराणों में वर्णित इक्कावन शक्ति-पीठों में एक प्रमुख पीठ है, जहाँ शिव-प्रिया सती की दाहिनी हथेली गिरी थी। ‘मानसरोवर’ शब्द संस्कृत के ‘मानस’ से उद्धृत है, जिसका तात्पर्य है ‘मन’ तथा ‘मानसरोवर’ की उत्पत्ति स्वयं ब्रह्मा के मानस (मन) से बतलाई गई है। मान्यता के अनुसार, प्रतिदिन ब्रह्म-मूहुर्त में देव-गण, ‘मानसरोवर’ के पवित्र जल में स्नान हेतु उपस्थित होते हैं। भक्तों के विश्वास-अनुरूप, ‘मानसरोवर’ में डूबी प्रत्येक शिला, पावन शिवलिंग का ही रूप है तथा इस क्षेत्र में वायु का हर कम्पन महादेव की ‘अनुगूँज’ है। पुनः राक्षस-ताल के तट पर लंकापति रावण ने अपनी तपस्या व स्वरचित ‘ताण्डव-स्तोत्र’ के मन्त्रों के माध्यम से शिव को प्रसन्न किया था। उन पावन श्लोकों का दिव्य-गान आज भी शिव-भक्तों को अनुप्राणित करता हैः-
‘डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं,
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्।।’’
अर्थात, ‘डमरू’ के डम-डम शब्दों से गुंजित प्रचण्ड ताण्डव-नृत्य में निमग्न नटराज-शिव, हमारे कल्याण का विस्तार करें’ ।
दूसरी ओर, ‘मानसरोवर-झील’ के पूर्वी, उत्तरी, पश्चिमी तथा दक्षिणी छोर से निकलने वाली चार प्रमुख नदियों, ब्रह्मपुत्र, सिन्धु, सतलज तथा करनाली (सरयू) का उद्गम स्थान है। बौद्ध मतावलम्बियों के अनुसार इन चारों नदियों का मुख क्रमशः अश्व, सिंह, हाथी व वृषभ (बैल) के आकार का है। इस प्रकार विश्व के उच्चतम स्थल से निःसृत ये नदियाँ-धरती को उपजाऊ बनाती हुई अन्ततः समुद्र में समाहित हो जाती हैं। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, गंगा का स्वर्ग से अवतरण इसी कैलाश-मानसरोवर क्षेत्र में हुआ, जो पुनः चार धाराओं में विभक्त हो गई। भौगोलिक व भूगर्भीय अनुमान के अनुसार भी मानसरोवर से निःसृत इन चारों नदियों का संयुक्त जल-क्षेत्र, पृथ्वी के सम्पूर्ण जल-नद का चैथाई भाग है।
इस प्रकार अविस्मरणीय-दृश्यों व साहसिक-अनुभवों से परिपूर्ण ‘कैलाश-मानसरोवर’ का चुम्बकीय आकर्षण सदियों से यात्रियों को अपनी ओर खींच रहा है। इस दुर्गम क्षेत्र की यात्रा हेतु भारत-सरकार के विदेश मंत्रालय से अनुमति प्राप्त करना एक अनिवार्य व प्राथमिक प्रक्रिया है। उत्तराखण्ड के ‘कुमाऊँ-मण्डल विकास निगम लि0’ द्वारा भी प्रतिवर्ष विभिन्न दलों के माध्यम से जून से सितम्बर माह मध्य, कैलाश-मानसरोवर यात्रा का सफल आयोजन किया जाता है।
विश्वम्भर दयाल पाण्डे
सहायक अधिशासी अभियन्ता (से.नि.)
(एमईएस)
सी-99, नेहरू कालौनी, देहरादून