‘‘सिद्ध पीठ – सुरकण्डा’’
‘‘सिद्ध पीठ – सुरकण्डा’’
‘‘या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।’’
अर्थात् जो माँ-भगवती सब प्राणियों में शक्ति रूप से स्थित हैं, उन्हें नमस्कार, उन्हें सादर प्रणाम तथा उन्हें निरन्तर नमन ।
हिम-मंडित धवल श्रृंखलाओं की सुरभित पवन के निरन्तर स्पर्श से प्रफुल्लित व आनन्दित अखण्ड शक्ति व भक्तिमयी ज्योति जिस पावन स्थल पर श्रद्धालुओं को सुख-शान्ति की अनवरत धारा से आप्लावित करती है, वहीं स्थित है माँ-सुरकण्डा का जागृत सिद्ध पीठ।
भौगोलिक रूप से सिद्ध पीठ सुरकण्डा का यह पावन स्थल उत्तराखण्ड के टिहरी जनपद व विकास खण्ड जौनपुर के अन्तर्गत सिन्धुतल से लगभग 3030 मीटर की ऊँचाई पर ‘‘सुरकूट’’ नामक पर्वत की उच्चतम चोटी पर स्थित है। माँ-सुरकण्डा का यह भव्य मंदिर एक ओर मसूरी-चम्बा मोटर मार्ग पर बुरांस खण्डा व धनौल्टी होते हुए मसूरी से मात्र 33 किलोमीटर तथा दूसरी ओर चम्बा से 22 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पड़ात ‘‘कद्दूखाल’’ (देवस्थली) से 2 किलोमीटर की चढ़ाई युक्त पैदल मार्ग पर स्थापित है। यद्यपि चढ़ाई चढ़ने में असमर्थ यात्रियों के लिये यहाँ किराये पर घोड़ों की सुविधा भी उपलब्ध रहती है। देहरादून से सीधे कद्दूखाल तक एक अन्य जंगलयुक्त मोटर मार्ग द्वारा ‘माल-देवता’ तथा ‘सत्यांे’ (सकलाना) होते हुए भी पहुँचा जा सकता है, लेकिन यह मार्ग वाया मसूरी से आने वाले मार्ग की अपेक्षा लगभग 15 किलोमीटर अधिक है।
माँ-सुरकण्डा यहाँ ‘‘सुरेश्वरी’’ नाम से भी पूजित होती हंै, जिसका स्पष्ट उल्लेख ‘‘मार्कण्डेय पुराण’’ अन्तर्गत ‘‘केदार खण्ड’’ के निम्न श्लोक में किया गया है तथा ‘‘सुरकूट’’ पर्वत की स्थिति का प्रमाण भी इस श्लोक में उपलब्ध है:-
‘‘गंगाया पश्चिमे भागे सुरकूट गिरिः स्थितिः।
तत्र सुरेश्वरी नाम्नी सर्वसिद्धि प्रदायिनी ।।’’
लोक मान्यता व विभिन्न ग्रन्थों में उल्लेखित प्रमाणों के अनुसार, पिता दक्ष के यज्ञ में अपमानित होने के कारण शिव-पत्नी सती द्वारा स्वयं को यज्ञ-कुण्ड में भस्म करने अनन्तर, उन्मत्त शिव के हृदय में सती के प्रति मोह को विनष्ट करने हेतु ही जब विष्णु जी के सुदर्शन चक्र द्वारा सती का मृत शरीर खंडित किया गया तो उनका ‘सिर’ यहाँ गिरने के कारण, यह पावन स्थल ‘सिर कटा’/ सिर कण्डा अर्थात ‘‘सुरकण्डा’’ के नाम से ‘‘सिद्ध पीठ’’ के रूप में स्थापित हुआ है। इस प्रकार ‘‘तंत्र-चूड़ामणि’’ नामक ग्रन्थ में उल्लेखित 51 शक्ति पीठों के अन्तर्गत, माँ सुरकण्डा का यह सिद्ध पीठ स्वयं में विशिष्ट स्थान रखता है।
पुनः प्राचीन मंदिर के जीर्णोद्धार के अनन्तर वर्तमान में निर्मित भवन व उसमें स्थापित त्रिमूर्ति, महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती की भव्यता अनुपम है। मुख्य मंदिर के सम्मुख पूर्व की ओर देवी के गण भैरव जी का मंदिर भी है। यहाँ आने वाले भक्त गणों की दृष्टि एका-एक जब मंदिर प्रांगण से उत्तरी-क्षितिज की ओर पड़ती है तो नगाधिराज हिमालय की विस्तृत व बर्फ से ढकी चोटियों के साथ पर्वत-ढलानों पर उगे वन-प्रदेशों व मध्य-मध्य में बसे ग्राम समूहों को देख उनका मन सहसा आत्म विभोर हो उठता है। स्वयं की विविधता व हरीतिमा का दिग्दर्शन कराते बुरांस, बाॅज, देवदार, कैल, खर्सू व भोज आदि के वृक्ष व रंग-बिरंगे जंगली पुष्प अनायास ही आँखों को आकृष्ट करने में विलम्ब नहीं करते। सुदूर उत्तर में हिमाच्छादित त्रिशूल, चैखम्बा, नन्दादेवी, बद्री-केदार व गंगोत्री-यमुनोत्री आदि शिखरों के दर्शन होते हैं तो वहीं दक्षिण मे दून घाटी का मनोरम दृश्य उपस्थित होता है। पश्चिम में पर्वतों की रानी मसूरी व धनौल्टी आदि के शिखर तथा पूर्व की ओर टिहरी, चम्बा व चन्द्रबदनी के पर्वत मण्डल अपना सौन्दर्य बिखेरने में उत्सुक दिखते हैं।
शीत काल में तो ‘‘सुरकण्डा’’ का उच्चतम शिखर हिमाच्छादित होने से और भी अधिक शोभनीय हो उठता है। सुरकण्डा के उत्तरी ढलान पर लगभग 1.5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है इन्द्र गुफा, जहाँ देवराज इन्द्र ने मार्कण्डेय पुराण अन्तर्गत केदार खण्ड में संग्रहीत निम्न श्लोकों के माध्यम से माँ सुरेश्वरी की आराधना करते हुए मानो उनके ‘‘देवताओं की देवी’’ होने की सार्थकता को सिद्ध किया था:-
‘‘नारायणी नमस्यामि सृष्टि संहार कारिणीम्।
जगदान्दरूपां तां जगदम्बां नतोस्म्यहम्।।
प्रकृतिं पुरूषाकारं हिमालय कृतालयाम्।
निरंजनां निर्विकारां निर्गुणां निरूपद्रववाम्।।
सरस्वतीं च सावित्रीं रूद्राणीं रूद्रवन्दिताम्।
नमस्यामि नराकारं निराकारं परमेश्वरीम्।।’’
सुरकण्ड़ा मंदिर में प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्लादशमी अर्थात् गंगा दशहरा के पावन पर्व पर भव्य मेले का भी आयोजन होता है। सुरकण्डा के निकटवर्ती क्षेत्रों में पर्यटकों के लिये अन्य दर्शनीय स्थल भी उपलब्ध हैं, जिनमें प्रमुख हैं, कद्दूखाल से 4 किलोमीटर दूर ‘‘देवदर्शनी’’, जहाँ मिलन मठ नाम आध्यात्मिक केन्द्र है। मसूरी-टिहरी मार्ग पर कद्दूखाल से 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ‘‘काणाताल’’, एक अन्य रमणीक व सेब के बागों से युक्त स्वास्थयवर्द्धक स्थान है।
अतः सिद्ध पीठ माँ सुरकण्डा का यह दर्शनीय स्थल जहाँ भक्तों की आध्यात्मिक ऊर्जा को द्विगणित करता है, वहीं प्रकृति प्रेमियों की पिपाषा को भी शान्त करने में सहायक है।
दर्शन के अनन्तर यहाँ से लौटते समय प्रसाद के रूप में प्राप्त ‘‘राँसुला’’ के वृक्षों की टहनियाँ, भक्तों की प्रसन्न्ता को और भी अधिक बढ़ाने में सहायक होती हैं, तथा ऐसा प्रतीत होता है कि मानो सम्पूर्ण प्रकृति ही माँ जगदम्बा का स्वरूप है।
— ई0 विश्वम्भर दयाल पाण्डे (सेवानिवृत्त)