तुलसी की काव्य-कुशलता
भारतीय साहित्य के उच्चतम शिखर पर आसीन गोस्वामी तुलसीदास की श्रेष्ठतम रचना ‘‘श्री रामचरित मानस’’ के अतिरिक्त उनके द्वारा रचित अन्य प्रमुख रचनाओं अर्थात् ‘’विनय पत्रिका’’, ‘‘गीतावली’’, ‘ कवितावली’’, ‘‘दोहावली’’, ‘‘जानकी-मंगल’’, ‘‘पार्वती-मंगल’’, ‘’हनुमान-चालीसा’’, ‘‘हनुमान बाहुक’’, ‘‘बैराग्य-संदीपनी’’, ‘‘बरवै-रामायण’’ तथा ‘‘रामाज्ञा-प्रश्न’’ के साथ ही राम व कृष्ण की एकरूपता दर्शित करने वाली रचना ‘‘ श्री कृष्ण-गीतावली’’ में जिन साहित्यक प्रतिभाओं का दर्शन होता है, वह अनुपम व अवर्णनीय है। पद्य-लेखन की अनेक विधाओं अर्थात् चैपाई, दोहे, छन्द, सोरठा, सवयै, बरवै तथा कवित्र आदि के माध्यम से उन्होंने स्वयं के साहित्य को विविध रसों व अलंकारों से विभूषित किया है। इतना ही नहीं, तुलसी ने अपनी रचना में यदि किसी ‘‘भाव’’ अथवा ‘‘सिद्धांत’’ का प्रतिपादन किया है अथवा निरूपण किया गया है तो उस ‘‘भाव’’ अथवा सिद्धांत को बड़ी कुशलता से स्वयं सिद्ध भी किया है। इसी ‘‘भाव’’ व ‘‘भाव-सिद्धि’’ के अनेकों उदाहरण उनकी सर्वोत्कृष्ट रचना ‘‘श्री रामचरित मानस’’ में उपलब्ध हैं तथा जिसका अवलोकन करने का यहाँ एक लघु प्रयास किया गया है। उदाहरणार्थ, प्रथम काण्ड ‘‘बालकाण्ड’’ अन्तर्गत दोहा क्रमांक 185 की पाँचवीं चैपाई प्रस्तुत है –
चैपाई – ‘‘ हरि व्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।।
रामचरित मानस ’’ 1/185/5
अर्थात परमात्मा की सर्वव्यापकता के सम्बन्ध में आशुतोष शिव सैद्धान्तिक रूप से स्पष्ट करते हैं कि यद्यपि ईष्वर सृष्टि के कण-कण में समान रूप से सर्वत्र वयाप्त हैं, लेकिन उस परमात्मा का प्राकट्य विशुद्ध प्रेम से ही संभव है। अतः ईश्वरीय शक्ति के प्रकट होने के पूर्व निर्मल हृदय में ‘‘प्रेम’’ का प्रादुर्भाव नितान्त आवश्यक है, अर्थात पहले ‘‘प्रेम’’ व तदन्तर ही ईश्वरीय शक्ति का प्राकट्य। उक्त सैद्धान्तिक भाव की पुष्टि मानस के विविध प्रसंगों द्वारा दृष्टिगत होती है। सर्वप्रथम माता सती के द्वारा पिता दक्ष के यज्ञ में अपमानित होने के अनन्तर व उनके ‘‘योग-अग्नि’’ में देह त्याग के पश्चात् भगवान शंकर के हृदय में अपने आराध्य श्री राम प्रति नित्य नवीन ‘‘प्रीति’’ का सृजन होता है। स्वयं श्री राम अपने सेवक व भक्त शिव अन्तस्तल में अपने प्रति भक्ति-भाव तथा प्रेम के अवलोकन पश्चात ही शिव-हृदय में उनका अर्थात कृतज्ञ व कृपालु राम का प्राकट्य सम्भव हुआ।
चैपाई – कतहुँ मुनिन्ह उपेदसहिं ग्याना।
कतहुँ राम गुन करहिं बखाना।।
एहि विधि गयउ कालु बहुनीति।
नित नै, होइ राम पद प्रीती।।
नेमु ‘‘प्रेमु’’ संकर कर देखा।
अविचल हृदयँ भगति कै रेखा।।
‘‘प्रगटे’’ रामु कृतग्य कृपाला।
रूप सील निधि तेज बिसाला।।
रामचरित मानस 1/96/1,3,4,5
उक्त सिद्धान्त की पुष्टि एक अन्य प्रसंग में भी दृश्टिगत होती है, जब तपस्या-रत दम्पत्ति मनु व सतरूपा की मधुर व प्रेम रस से पगी विनम्र वाणी को सुनकर भक्त-वत्सल व कृपानिधान प्रभु का अनायास ही उनके सम्मुख प्राकट्य होता है:-
चैपाई – दम्पत्ति वचन परम प्रिय लागे।
मृदुल बिनीत ‘‘प्रेम’’ रस पागे।।
भगत बछल प्रभु कृपा निधाना।
बिस्वबास ‘‘प्रगटे’’ भगवाना।।
रामचरित मानस 1/146/7-8
एक अन्य दृश्य के अन्तर्गत, स्वयं माता कौषल्या व अन्य माताओं के हृदय में हरि-कमल चरणों के प्रति दृढ़ व विनय पूर्ण पे्रम की अनुभूति का अंकुर फूटन के पष्चात् ही सम्पूर्ण संसार को विश्राम प्रदान करने वाले प्रभु राम का प्राकट्य अपनी विभूतियों सहित होता है।
दोहा – कौसल्यादि नारि प्रिय सन आचरन पुनीत।
पति अनुकूल ‘‘ प्रेम ’’ दृढ़ हरि पद कमल बिनीत।।
रामचरित मानस 1/188
दोहा – सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।
जग निवास प्रभु ‘‘प्रगटे’’ अखिल लोक विश्राम।।
रामचरित मानस 1/191
अथवा
छन्द – भए ‘‘ प्रगट ’’ कृपाला दीन दयाला कौसल्या हितकारी।।
रामचरित मानस 1/192-1
प्रस्तुत सन्दर्भ के आधीन ही एक अन्य मधुर व प्रेमपूर्ण दृश्य का अवलोकन जनकपुर की पुश्प-वाटिका में उस समय होता है जब एक ओर जानकी जी माता गोैरी-पूजन हेतु अपनी सखियों सहित बाग में प्रवेश करती है तथा दूसरी ओर राम जी भी भ्राता लक्ष्मण सहित गुरू-पूजा के लिये पुश्प चयन करते हैं। अनायास ही सखियों द्वारा लताओं की ओट में राम-छवि का दर्शन प्राप्त कराने पर सीता जी जब प्रेम के वशीभूत होकर संकुचा जाती हैं तो इसी के पश्चात् अर्थात जानकी-हृदय में प्रगाढ़ प्रेम के उदय के अनन्तर ही लता-झुरमुटों के मध्य अनुज सहित राम जी का प्राकट्य उसी प्रकार होता है, जैसे कि मानों नभ मंडल मध्य बादलों के आवरण को हटाकर युगल निर्मल चन्द्रमाओं का उदय हो रहा हो।
चैपाई – जब सिय सखिन्ह प्रेम बस जानी।
कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी।।
रामचरित मानस 1/232/8
दोहा – लताभवन तें प्रगट में तेहि अवसर दोउ भाइ।
निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ।।
रामचरित मानस 1/232
प्रथम ‘‘प्रेम’’ एवम् तदन्तर ‘‘प्राकट्य’’ के इसी उच्च सिद्धान्त के अनुरूप ही अरण्य काण्ड के अन्तर्गतस, भक्ति भावना से ओत-प्रोत मुनि अगस्त्य जी के षिश्य सुतीक्ष्ण के सन्मुख ज्ञान, वैराग्य व भक्ति की प्रतिमूर्ति राम, लक्ष्मण व सीता का प्राकट्य तभी सम्भव हो पाता है, जब उनके हृदय में विशुद्ध प्रेम का स्फुरण होता है।
प्रस्तुत प्रसंग की विलक्षणता इससे भी सिद्ध होती है कि जब तीनों के मुनि सुतीक्ष्ण प्रकट होने के पूर्व हृदय में तुलसी की लेखनी राम व लक्ष्मण के हेतु क्रमशः दो बार ‘‘प्रेम’’ का तथा माता जानकी के सन्दर्भ में एक बार ‘‘प्रीति’’ शब्द का प्रयोग करती है:-
चैपाई – मुनि अगस्ति कर सिश्य सुजाना।
नाम सुतीक्षन रति भगवाना।।
सहित अनुज मोहि राम गोसाईं।
मिलि हहिं निज सेवक की नाईं।।
मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं।
भगति बिरति न ग्यान मन माहीं।।
निर्भर ‘‘प्रेम’’ मगन मुनि ग्यानी।
कहि न जाइ सा दसा भवानी।।
अबिरल ‘‘प्रेम’’ भगति मुनि पाई।
प्रभु देखैं तरू ओट लुकाई।।
अतिसय ‘‘प्रीति’’ देखि रघुबीरा।
‘‘प्रगटे’’ हृदयँ हरन भव भीरा।।
आगें देखि राम तन स्यामा।
सीता अनुज सहित सुख धामा।।
रामचरित मानस 3/10/13/14/15/6/10/20
इस प्रकार अनेक प्रसंगों में तुलसी ने बड़ी दक्षता से ‘‘प्रेम’’ व ‘‘प्राकट्य’’ के भावों को कुशलता पूर्व सिद्ध भी किया है तथा साथ ही वे हमें ग्रन्थ के भावों को भक्तिपूर्वक ग्रहण करने हेतु प्रेरित करते हैं।