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जीवन में किताबी शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक संस्कार एवं दीक्षा का होना भी अति आवश्यक है

आकाश ज्ञान वाटिका, सोमवार, २७ अप्रैल २०२०, देहरादून।

[box type=”shadow” ]“शिक्षण एक बहुत ही महान पेशा है जो किसी व्यक्ति के चरित्र, क्षमता, और भविष्य को आकार देता हैं। अगर लोग मुझे एक अच्छे शिक्षक के रूप में याद रखते हैं, तो मेरे लिए ये सबसे बड़ा सम्मान होगा।” – डॉ० ए. पी. जे. अब्दुल कलाम[/box]

माता शत्रुः पिता बैरी, येन बालौ न पाठितः।
न शोभते सभा मध्ये, हंस मध्ये बको यथा।।

  • शिक्षा से कोई भी वंचित न रहें, हम सबको इसका ध्यान रहें

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‘शिक्षा’ का तात्पर्य होता है: ‘सीखना और सिखाना’। अतः शिक्षा वह प्रयोगशाला है, जिसमें सीखने और सिखाने की प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलती रहती है। यदि हमारे पास ज्ञान रूपी धन है और इसे हम बाँटें तो भी यह कभी ख़त्म नहीं होता है। ज्ञान के रूप में दी गई इस शिक्षा में कुछ ऐसे तथ्य अवश्य मिलेंगे जो समाज के लिए लाभकारी होंगे तथा इसके बदले जब समाज से कुछ प्रतिक्रिया प्राप्त होगी तो उससे कुछ न कुछ हमें सीखने को मिलेगा। इस प्रकार शिक्षा के इस आदान – प्रदान से ज्ञान बढ़ेगा, जिससे हमारे सोचने एवं समझने की शक्ति बढ़ने के साथ साथ मन पवित्र होता चला जायेगा। मानव जीवन में शिक्षा की यह प्रक्रिया जन्म के साथ ही आरम्भ होकर आजीवन चलती रहती है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसलिए हमें शिक्षा और समाज के पारस्परिक संबंधों को देखने की अति आवश्यकता है। आज आवश्यकता है ऐसी शिक्षा की जिससे मानव के विकास के साथ ही समाज में इसका सही प्रभाव पढ़ना भी उतना ही जरुरी है। आज समाज का ढ़ाँचा बदल चुका है। प्राचीन काल में जो समाज व्यवस्था थी धीरे धीरे बदलती गई। इस वैज्ञानिक युग में मानव एवं समाज एक दूसरे के काफी करीब आ चुके हैं। प्रत्येक मनुष्य समाज से कुछ न कुछ फायदा लेना चाहता है, जो उसे मिलता भी है। लेकिन बदले में समाज को क्या मिल रहा है ? हमारे चारों ओर समाज का ढाँचा किस तरह का होता जा रहा है ? यह एक गम्भीर व सोचनीय विषय बन गया है। इस वैज्ञानिक युग में तकनीक के व्यापक प्रचार प्रसार से सभी एक दूसरे के करीब आते जा रहे हैं। समाज का स्वरुप भी व्यापक व्यापक होता जा रहा है। शिक्षा का अपने आप में एक विशाल स्वरूप है। हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता, हमारी कलाएं आदि सभी कुछ, हमारी शिक्षा पर आधारित हैं।

यहाँ पर यह जरुरी हो जाता है कि सभी देश आपस में कितने भी नजदीक क्यों न आ जायें पर शिक्षा हमेशा अपने मूलभूत सिद्धान्तों, अपने रीति-रिवाजों एवं अपनी संस्कृति पर आधारित होनी जरूरी है। इसीलिए तो कहा जाता है जब शिक्षा में संस्कारों का समावेश होगा तभी हमारी शिक्षा सार्थक कहलायेगी।
बच्चों के जीवन को सार्थक एवं सफल बनाने के लिए उनको पुस्तकीय ज्ञान रूपी शिक्षा के साथ-साथ समाज में जीने की कला आनी चाहिए जो उसे अच्छे एवं पवित्र संस्कारों से मिलती है। इसी को दीक्षा कहते हैं। यदि बच्चों को बचपन से ही शिक्षा-दीक्षा का सही से अहसास कराया जाये और उसकी शिक्षा में संस्कारों का समावेश हो तो उनका जीवन सार्थक हो जाता है और वह समाज में अपने आप को श्रेष्ठ दर्जा दिलाने में सक्षम हो जाते हैं। यहाँ श्रेष्ठ दर्जे का मतलब है सुशिक्षित, संस्कारवान एवं उच्च व्यक्तित्व।

अशिक्षा जीवन को नीरस एवं दुर्बल कर देती है और सामाजिक गतिविधि से दूर, जीवन का पथ ही विचलित हो जाता है। अशिक्षित व्यक्ति समाज को ठीक से समझने में असमर्थ रहता है तथा बिना समाज के अच्छे-बूरे की जानकारी के सामाजिक जीवन जीना ही कठिन हो जाता है।

ज्ञान प्राप्त करने के लिये शिक्षा बहुत आवश्यक है क्योकि इसके द्वारा महापुरुषों के विचारों तथा अनुभवों का लाभ उठाया जा सकता है। केवल शिक्षा ही ज्ञान की संवाहिका नहीं हो सकती। किसी ने उच्च शिक्षा तो प्राप्त कर ली किन्तु वह समाज से दूर-दूर, संसार की गतिविधियों से विरत, आत्मलीन जैसा रहता है; न लोगों के सम्पर्क में आता है और न विचारों का आदान-प्रदान ही करता है, तो उसकी शिक्षा उसके किसी काम नहीं आ सकती है। संसार की समस्त गतिविधियों की जानकारी रखना और समाज में लोगों की विचारधारा किस दिशा में प्रवाहित हो रही है एवं वर्तमान परिस्थितियों में हमें अपने आप को किस तरह से समाहित करना है, इन सभी चीजों की जानकारी प्राप्त किये बगैर अपनी दिशा, कार्यपद्धति और साधनों के संचालन का सही निर्णय लेना बहुत मुश्किल हो जाता है।

यदि कोई व्यक्ति शिक्षित होते हुए भी अपने समाज एवं प्रकृति के नियमों एवं गतिविधियों से अनभिज्ञ है तो वह अपनी शिक्षा का सार्थक फल नहीं प्राप्त कर सकता है। अतः शिक्षा का सही उपयोग कर पाने के लिए हमें अपने को सामाजिक, सांस्कृतिक एवं व्यवहारिकता बनाना होगा।[/box]

जब एक अबोध शिशु इस संसार में कदम रखता है तो वही से वह अपने आस-पास के वातावरण, माता पिता एवं संपर्क में आने वाली अन्य चीजों एवं व्यक्तियों से शिक्षा ग्रहण करता है। यही उसके जीवन की पहली सीढ़ी है। अतः यही समय है कि उसे अच्छे संस्कार एवं शिक्षा दी जाये। पहले पाँच-छः वर्ष की आयु में स्कूली शिक्षा ग्रहण करने के लिए बच्चे को स्कूल भेजा जाता था लेकिन अब तीन-चार साल की उम्र में ही बच्चे को स्कूल भेज दिया जाता है। स्कूल जाने के उपरांत शिक्षा प्रारम्भ होने के साथ ही साथ बच्चा, अब समाज के संपर्क में आता है। चूँकि इस समय बच्चे में अपनी स्वयं की समझ नहीं होती है और उसे अच्छे बुरे की भी समझ नहीं होती है। इस वक्त माता-पिता तथा अध्यापकों की भूमिका काफी अहम हो जाती है कि उसे सही दिशा में आगे बढ़ाया जाय। जब धीरे-धीरे वह अन्य बच्चों के साथ घुलमिल जाता है और फिर नियमित रूप से विद्यालय जाने लगता है तो अब भी उसे सही मार्गदर्शन की जरुरत होती है जो उसे अभिभावकों, शिक्षकों एवं परिवार के अन्य लोगों से मिलती है। बच्चों की शिक्षा के लिये केवल मात्र अध्यापकों पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिये।

अभिभावकों को चाहिए कि वह बच्चे में आध्यात्मिक जिज्ञासा भी जगाते रहें। इस प्रकार बच्चों को किताबी ज्ञान के साथ साथ सामाजिकता एवं व्यावहारिकता और आध्यात्म-ज्ञान का बोध भी होता रहेगा। शिक्षा का मतलब किताबी ज्ञान अर्जित करना ही नहीं होता है, शिक्षा का वास्तविक अर्थ देखा जाये तो एक तरह से बृहद बन जाता है; क्योंकि शिक्षा पारिवारिक रिश्तों को निभाने की, समाज में किस तरह से रहना है उसे समझाने की, माता-पिता, गुरूजनों के साथ कैसे बातें व व्यवहार किया जाता है, देश के प्रति निष्ठा तथा सभी के प्रति प्यार, इस प्रकार की कई शिक्षायें होती हैं, जिन्हें जीवन में अर्जित करने के उपरान्त ही वास्तविक शिक्षा का सही ज्ञान हो पाता है। जिस इंसान में यह सारी शिक्षायें समाहित हो जाती है, वही एक सिद्ध एवं आदर्श पुरूष कहलाता है। इसलिये जीवन में किताबी शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक शिक्षा-दीक्षा का होना भी अति आवश्यक होता है।

[box type=”shadow” ]“अंततः वास्तविक अर्थों में शिक्षा सत्य की खोज है। यह ज्ञान और आत्मज्ञान से होकर गुजरने वाली एक अंतहीन यात्रा हैं।” – डॉ० ए. पी. जे. अब्दुल कलाम[/box]

[box type=”shadow” ]आज परिस्थितियाँ दिन प्रतिदिन और भी गंभीर एवं  जटिल होती जा रही हैं। अनियोजित विकास, आगे बढ़ने की होड़ में मानव अपने संस्कारों को भूलता जा रहा है। प्रकृति का अंधा-धुंध दोहन हो रहा है जिससे प्रकृति अपना संतुलन खोती जा रही है। पाश्चात्य संस्कृति का बोलबाला हमारी संस्कृति एवं सभ्यता पर बुरा असर डाल रही है। हम अपने पारम्परिक व्यंजनों को छोड़, जंक/फ़ास्ट फ़ूड की लाइन में लगे हैं जिससे हमारी जीवन शैली ही बदल चुकी है। आज प्रकृति पुनः बदलाव चाह रही है। हमें भी अपनी जीवन शैली को बदलने की आवश्यकता है।[/box]

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Ghanshyam Chandra Joshi

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