“स्कूल बच्चों की ऑक्सीजन ही नहीं – सबसे बड़ा सामाजिक सुरक्षा-कवच”
“स्कूलों को आवश्यक सेवाओं की भाँति खोला जाय”,
“स्कूल जरूरी भी है और सुरक्षित भी है”
[highlight]”तीसरी दुनिया के बच्चों के लिए स्कूल से बड़ा सुरक्षा कवच नहीं” : डॉ० एन. एस. बिष्ट[/highlight]
आकाश ज्ञान वाटिका, 1 अगस्त 2021, रविवार, देहरादून। चुनिंदा अल्प-संसाधनों वाले देशों को छोड़ दिया जाय तो अधिकतर देशों में स्कूल पहले ही खुल चुके हैं या खुलने जा रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि अभी भी वैक्सीन बिना स्कूल न खोलने की गर्मागर्म बहस जारी है। वैज्ञानिक विश्लेषण कहते हैं कि कम उम्र के बच्चों में गम्भीर कोरोना का खतरा न्यूनतम है और सारे प्राइमरी स्कूल तो खुल ही जाने चाहिए, तो अभिभावक चिंतित हैं कि मासूम बच्चों को “मुहरा” बनाया जा रहा है। दूसरी तरफ वैज्ञानिक शोधों का दावा है कि कम खतरे वाले बच्चों को टीका लगाना गैर जरूरी और समय-संसाधनों की बर्बादी है। कोरोनाकाल ने इंसान को जहाँ नवाचार के लिए प्रेरित किया है।
वहीं हमारी संरक्षणवादी मानसिकता को अंधेरे पुराने नकारात्मक युग में पहुँचा दिया है। अभिभावकों के लिए स्कूल “खतरे के केन्द्र” से कम नहीं तो मीडिया के लिए बच्चे महा-प्रसारी (सुपर-स्प्रेडर) से अधिक नहीं। दूसरी तरफ कोरोनाकाल की अनिश्चितता और नकारात्मकता ने कूट-विज्ञान और कूट-भावनाओं का हिस्टिरिया भी खूब फैलाया है – माँ-बाप, मीडिया, डाॅक्टर, राजनीतिक लोग सभी एक हिस्टिरिया के शिकार हैं।
जिसमें बच्चों के प्रति अतिसंरक्षणवाद हावी है। तीसरी लहर की आशंका और बच्चों के टीकाकरण की अनिश्चितता के बीच स्कूलों को पूर्ण रूप से खोले जाने के कदम का कई अभिभावकों और राजनीतिकों के द्वारा विरोध जारी है। महामारी वो वक्त है जब हर कोई किसी दूसरे की तरफ जरूरी दिशा-निर्देश के लिए ताकता हुआ लग रहा है – बच्चों को घर के अन्दर वौनसाई की तरह कैद हुए 18 महीने बीत चुके हैं तब भी कईयों को स्कूल जरूरी नहीं लगता। कतिपय को लगता है कि शिक्षा का “स्कूल-माॅडल” फेल हो चुका है।
अब वर्चुअल क्लासरूम ही भविष्य है। लेकिन इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि स्कूल सिर्फ शिक्षा नहीं देते बल्कि बच्चों के “समग्र-विकास” के केन्द्र हैं। असल में बच्चों के लिए तो स्कूल “सुरक्षा-कवच” का काम करते हैं जहाँ उनको पोषण के साथ-साथ पूरा दिन एक सुरक्षित माहौल में बिताने को मिलता है। इसलिए सवाल अब ये नहीं उठना चाहिए कि स्कूल खुले या नहीं बल्कि बहस इस बात पर होनी चाहिए कि हम अपने स्कूली-तंत्र को और कितना “गहन, सक्रिय और विविधतापूर्ण” बना सकें कि बच्चों से छिने हुए उनके 18 महीने उनको वापस दिला सकें। जाहिर है कि मुख्य चिन्ता इस बात की है कि सिर्फ खोलने के लिए स्कूल न खुलें, बल्कि स्कूलों को कर्ई कदम तेज-तेज चलने होंगे ताकि पीछे छूटे हुए 18 महीने वापस पा सकें।
इन बातों का मजबूत आधार भी है कि स्कूल खोलना पूरी तरह से सुरक्षित हैं। अमेरिका के उत्तरी कैरोलिना में 90 हजार स्कूली बच्चों में हुए अध्ययनों में पाया गया है कि कोरोना की स्कूली-संक्रमण और प्रसार की दर सामुदायिक संक्रमण से काफी नीचे है। उसी तरह विस्कोंसिन के 17 स्कूलों में हुए शोध बताते हैं कि बच्चों के लिए सामाजिक क्षेत्र से अधिक सुरक्षित स्कूल हैं। जर्मनी, फ्रांस, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर में हुए अन्वेषण बताते हैं कि बच्चों से स्कूली-संक्रमण नहीं के बराबर फैलता है। ज्यादातर देशों में क्लास रूम की खिड़कियों को खुला रखने के अलावा मास्क, सोशल प्रार्थक्य इत्यादि पर भी जोर नहीं दिया गया है। ये अध्ययन अभिभावकों की चिंता तो कम करते ही हैं तथा इस बात की भी तसदीक करते हैं कि बच्चों में सामुदायिक संक्रमण से कम खतरा स्कूली प्रसार में है। वास्तव में बच्चों के लिए सबसे सुरक्षित जगह स्कूल ही है। कम-से-कम कोरोनाकाल की नकारात्मकता में तो यही सबसे ज्यादा परिलक्षित हो रहा है।
कोरोना की तीसरी लहर सम्भाव्य है लेकिन इस बात की आशंका न्यून है कि स्कूल इसके उपरिकेन्द्र होंगे। जरूरत वयस्कों द्वारा सामुदायिक प्रसार को रोकने की है, जरूरत वयस्कों द्वारा कोविड-उपयुक्त व्यवहार जारी रखने की है, जरूरत वयस्कों द्वारा टीकाकरण में प्रतिभाग करने की है और जरूरत इस बात पर जोर देने की भी है कि “स्कूल जरूरी भी है और सुरक्षित भी।” दीर्घ काल में स्कूल ही बच्चों के सबसे बड़े सुरक्षा कवच बने रहेंगे।
साभार : डॉ० एन. एस. बिष्ट
सीनियर फिजिशियन