अहिंसा सबसे महान धर्म, परंतु वह सत्य में ही प्रतिष्ठित है
अशोक प्रवृद्ध
श्रीकृष्ण ने दुष्टता करने वाले मनुष्य की दुष्टता को कुचल देने का उपदेश देता हुए कहा है- विनाशाय च दुष्टकृताम्। अर्थात- दुष्टता करने वाले मनुष्य की दुष्टता को कुचल दो। ऐसा करके ही अहिंसा का पालन व सत्य की रक्षा अनेक अवसरों पर होती है। इसलिए मनुष्यों को अहिंसा का प्रयोग करते हुए विवेक से कार्य लेना चाहिए। एक सीमा तक ही लोगों का बुरा व्यवहार सहन करना चाहिए और उसके नहीं सुधरने पर उसका समुचित निराकरण यथायोग्य व उससे भी कठोर व्यवहार करके करना चाहिए।
भारतीय परंपरा में अहिंसा और सत्य भाषण समस्त प्राणियों के लिए अत्यंत हितकर माने गए हैं। अहिंसा सबसे महान धर्म है, परंतु वह सत्य में ही प्रतिष्ठित है। सत्य के ही आधार पर श्रेष्ठ पुरुष के सभी कार्य आरंभ होते हैं। महाभारत, वनपर्व में कहा गया है –
अहिंसा परमो धर्म: स च सत्ये प्रतिष्ठित:।
अर्थात- अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है और सत्य पर ही टिका होता है। सत्य में निष्ठा रखते हुए सारे काम संपन्न होते हैं।
वेद सत्य ज्ञान की पुस्तक है। वेद का अर्थ ही ज्ञान होता है। सत्य का अर्थ सत्तावान होता है। जिस पदार्थ की सत्ता है, उसके गुण, कर्म व स्वभाव अवश्य होते हैं, उनका यथार्थ अथवा ठीक -ठीक ज्ञान सत्य कहलाता है। ईश्वर की सत्ता है तथा जीवात्मा और प्रकृति की भी सत्ता है। इसलिए यह तीनों पदार्थ सत्य कहे व माने जाते हैं। इसी तरह ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति के गुण, कर्म व स्वभाव का यथार्थ ज्ञान सत्य कहा जाता है। ईश्वर का प्रथम प्रमुख नाम ही सच्चिदानन्दस्वरूप है। सच्चिदानन्द तीन शब्दों का समुदाय है, जिसमें सत्य, चित्त और आनन्द इन तीन गुणों का समावेश है। सत्य किसी पदार्थ की सत्ता को कहते हैं। ईश्वर है और उसकी सत्ता भी है, यह यथार्थ है। इसलिए ईश्वर को सत्य कहा गया है।
वैदिक मत के अनुसार सत्य पर ही अहिंसा प्रतिष्ठित होता है। अहिंसा परम धर्म, परम तप और परम सत्य है, क्योंकि उसी से धर्म की प्रवृति होती है। महाभारत आदि पर्व, पौलोम पर्व 11/12, 11/13, अनुशासन पर्व, दानधर्म पर्व 116/28, 245/4 आदि श्लोकों में अहिंसा परमो धर्म: कहा गया है। महाभारत अनुशासनपर्व, दानधर्म पर्व 116/28 के अनुसार अहिंसा परम धर्म, परम संयम, परम दान, परम तपस्या है। महाभारत अनुशासन पर्व दानधर्म पर्व 245/4 के अनुसार अहिंसा परम धर्म, परम सुख है। वैदिक ग्रंथों में में अहिंसा को परमपद बताया गया है। महाभारत अनुगीतापर्व आश्व मेधिकपर्व 43/20 व 43/21 के अनुसार अहिंसा सबसे श्रेष्ठ धर्म है और हिंसा अधर्म का लक्षण (स्वरूप) है।
अहिंसा का अर्थ होता है अ-हिंसा अर्थात हिंसा न करना। दूसरों के प्रति वैर भावना का त्याग करना। किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान नहीं पहुंचाना। मन में किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वार भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है। दूसरों के प्रति वैर भाव अथवा कोई निजी स्वार्थ होने पर ही हम दूसरों के प्रति हिंसा करते हैं, जबकि कोई यह नहीं चाहता कि दूसरे लोग व प्राणी उनके प्रति हिंसा करें। हिंसा जिसके प्रति की जाती है, उसको हिंसा से दु:ख व पीड़ा होती है।
इसीलिए यदि हम चाहते हैं कि कोई हमारे प्रति हिंसा का व्यवहार न करे तो हमें भी दूसरों के प्रति हिंसा का त्याग करना होगा। दूसरों के प्रति अपने मन व हृदय में प्रेम व स्नेह का भाव उत्पन्न करने पर ही हिंसा दूर हो सकती है। इससे मन व हृदय में शांति उत्पन्न होगी, जिससे हमारा मन व मस्तिष्क ही नहीं अपितु शरीर भी स्वस्थ एवं दीर्घायु को प्राप्त होगा। इसलिए हर उस व्यक्ति को दूसरे प्राणियों के प्रति अहिंसा का व्यवहार करने के लिए उद्यत रहना चाहिए, जो दूसरों के द्वारा अपने प्रति हिंसा का व्यवहार करना पसन्द नहीं करते। महाभारत मोक्षधर्म पर्व शांतिपर्व 256/3 में हिंसा की निंदा की गई है-
अव्यवस्थितमर्यादैर्विमूढ़ैर्नास्तिकैर्नरै:।
संशयात्मभिरव्यक्तैर्हिंसा समनउवर्णइतआ।
अर्थात- जो धर्म की मर्यादा से भ्रष्ट हो चुके हैं, मूर्ख हैं, नास्तिक हैं तथा जिन्हें आत्मा के विषय में संदेह है एवं जिनकी कहीं प्रसिद्धि नहीं है, ऐसे लोगों ने ही हिंसा का समर्थन किया है।
वैदिक ग्रंथों में ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति सहित मनुष्य के कर्तव्यों व मनुष्य जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य का यथार्थ बोध कराया गया है। दूसरों को पीड़ा देना अधर्म कहलाता है। मनुष्य हो या पशु–पक्षी, किसी को भी पीड़ा देना अधर्म व महापाप होता है। दूसरों को पीड़ा देना उनके प्रति हिंसा ही कही जाती है। इसलिए सबको अहिंसक स्वभाव व भावना वाला बनना चाहिए। ऐसा होने पर ही सही मायने में व्यक्ति में मनुष्यता के लक्षण दिखाई देते हैं। वेद मनुष्य को मनुष्य बनने की प्रेरणा व आज्ञा देते हैं- मनुर्भव।
इस एक शब्द में ईश्वर ने वेद के द्वारा मनुष्य को मनुष्य बनने अर्थात मननशील होकर सत्य का ज्ञान प्राप्त करने व उसका आचरण करने की प्रेरणा दी है। सबसे यथायोग्य व्यवहार करने की आज्ञा दी है। यथायोग्य का अर्थ होता है जैसे को तैसा। इस सिद्धांत पर नहीं चलने से हम असत्य व हिंसक आचरण करने वाले मनुष्य का सुधार नहीं कर सकते। हमारे विरोध न करने से उसकी हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा। इसका दोष हम पर ही होगा।
मनुष्य को सुधारने के चार तरीके होते हैं- साम, दाम, दण्ड और भेद। जो व्यक्ति सज्जन है उसे प्रेम से समझाया जा सकता है। यदि वह नहीं सुधरता तो कुछ दमन करना होता है। उस पर भी यदि वह न सुधरे और हिंसा का आचरण करे तो फिर उसको दण्ड अथवा अल्प हिंसा से युक्त दण्ड देकर ही सुधारा जा सकता है। अहिंसा का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि कोई हमारे प्रति हिंसा का व्यवहार करे और हम मौन होकर उसे सहन करें। यदि ऐसा करेंगे तो हिंसक मनुष्य का स्वभाव और अधिक हिंसा वाला होगा और वह अन्य सज्जन लोगों को भी दु:ख देगा। वेद हिंसक मनुष्य या प्राणियों के प्रति यथायोग्य व्यवहार की ही प्रेरणा देते हैं।
इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने दुष्टता करने वाले मनुष्य की दुष्टता को कुचल देने का उपदेश देता हुए कहा है- विनाशाय च दुष्टकृताम्। अर्थात- दुष्टता करने वाले मनुष्य की दुष्टता को कुचल दो। ऐसा करके ही अहिंसा का पालन व सत्य की रक्षा अनेक अवसरों पर होती है। इसलिए मनुष्यों को अहिंसा का प्रयोग करते हुए विवेक से कार्य लेना चाहिए। एक सीमा तक ही लोगों का बुरा व्यवहार सहन करना चाहिए और उसके नहीं सुधरने पर उसका समुचित निराकरण यथायोग्य व उससे भी कठोर व्यवहार करके करना चाहिए।
योगदर्शन के अष्टांग योग में योग का पहला अंग यम है। यम पांच होते हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह। आदि सनातन काल से ही ऋषि- मुनि, योगीजन अहिंसा व सत्य सहित पांचों यमों का पालन करते आये हैं। यह यम किसी एक मत के लिए नहीं अपितु यह सार्वजनीन हैं अर्थात् विश्व के सभी मनुष्यों के पालन व आचरण करने योग्य हैं। सभी को इसे जानकर इसकी मूल भावना के अनुसार सेवन व आचरण करना चाहिए। इसी से मनुष्य जीवन शोभायमान होता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि वैदिक मत में अहिंसा को परम धर्म कहा गया है। लेकिन दुष्टों की दुष्टता को कुचल देने की आज्ञा भी दी गई है। इसीलिए रावण, कंस आदि की दुष्टता को श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि वैदिकधर्मियों ने अवसर हाथ लगते ही कुचलने में देर नहीं की। लेकिन महाभारत के बाद लोगों के वेद ज्ञान से दूर होने के कारण अहिंसा का यह अर्थ लोगों के मस्तिष्क में नहीं रह पाया। अन्य संस्कृतियों का उदय हुआ, और अन्य संस्कृतियों के संपर्क मे आने के कारण भारतीयों में भी मात्र दुष्टता को कुचलने के स्थान पर हिंसा प्रयोग करने के आदेश के प्रतिकूल यज्ञ, बाद में देव पूजन के नाम पर बलि के नाम पर पशु हिंसा का प्रचलन बढऩे लगा। जिसका वैदिक धर्म पर आश्रित लोगों ने तर्क- वितर्क, वाद- विवाद आदि तरीकों से विरोध व समझने का प्रयास भी किया, लेकिन वह प्रयास सफल नहीं हो सका।
बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध ने भी अहिंसा का उद्घोष अपने उपदेशों में किया था। भगवान बुद्ध के उपदेशों का असर यह हुआ कि उस समय यज्ञों के दौरान जो पशु हिंसा होती थी, वह समाप्त हो गई। लेकिन अहिंसा के सत्य स्वरूप के साथ ही दुष्टों की दुष्टता को कुचल देने की आज्ञा देने की वैदिक वचन गौण हो गई, समाप्त हो गई। कालांतर में अहिंसा का ठीक प्रकार से अर्थ न समझ सकने के कारण परिणाम यह हुआ कि भारत पर अनेक आक्रमण हुए और यह गुलाम हो गया। बहरहाल, भारत में अत्यंत प्राचीन काल से ही अहिंसा का प्रचलन रहा है।
वर्तमान में भी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अहिंसात्मक तरीके से महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले एक भारतीय मोहनदास करमचंद गांधी के जन्म दिन 2 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस मनाया जाता है। शांति और अहिंसा के विचार पर अमल करने और महात्मा गांधी के जन्म दिवस को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 15 जून 2007 को एक प्रस्ताव पारित कर संसार से की थी।