उत्तराखंड के अनाजों के महत्व को दर्शाता है लोकपर्व रूटल्या त्यौहार, आओ मिलकर मनाए इस बार !
साभार : हरीश कंडवाल ‘मनखी’, साहित्यकार/कवि
आकाश ज्ञान वाटिका, 13 जुलाई 2023, गुरूवार, देहरादून। उत्तराखंड के पहाड़ों से जहाँ लोग पलायन कर गए, साथ में यहाँ से संस्कृति, लोक पर्व भी पलायन करते चले गए। आज उत्तराखंड के मूल निवासी अपने मूल लोक पर्वों को भूलकर बाजारी पर्वों की ओर अग्रसर हो गए हैं, जबकि उत्तराखंड के लोक पर्व वहाँ के समाज, प्रकृति, भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार होते थे। आज के परिदृश्य में हम आधुनिकता की और बढ़ते जा रहे हैं। अपने लोकपर्वों को भूलते जा रहे हैं जबकि हमारे सारे लोक पर्व हमको सीधे प्रकृति से जोड़ते हैं, चाहे हरेला हो, घी संक्रांति हो, रूटल्या त्यौहार हो या अन्य कोई भी पर्व हो।
आज सभी लोग हरेला पर्व, फूलदेई जैसे लोकपर्वों को धूम-धाम से मना रहे हैं, लेकिन एक पर्व ऐसा भी है जिसे हमने पूर्ण रूप से भुला दिया। जी हाँ, आज हम बात कर रहे हैं लोक पर्व रूटल्या त्यौहार की।
कब और कैसे मनाया जाता है रूटल्या त्यौहार
आषाढ़ मास के अंतिम दिन सावन माह की संक्रांति हरेला पर्व से एक दिन पहले मनाया जाने वाला लोक पर्व रूटल्या त्यौहार अब शायद ही किसी को याद हो। यह मुख्यतः गढ़वाल के कुछ जगहों पर मनाया जाता है। इस लोक पर्व को मनाने के पीछे कई जनश्रुतियां हैं, हमारे पूर्वज भले ही वैज्ञानिक नहीं थे लेकिन व्यवहारिक ज्ञान उनका उच्चकोटि का था।
उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र में होली के बाद ऐसा कोई लोक पर्व नहीं मनाया जाता था जो स्थानीय हो, यह बरसात के समय का शुरू होने वाला पहला लोकपर्व था। जब गेँहू जौ की फसल कटने के बाद खेतो में मंडुवा, झंगोरा, कौणी आदि की फसल की बुवाई हो जाती थी। गेंहू के फसल होने के बाद नई फसल से प्राप्त नए गेंहू के आटे को उपयोग में नहीं लाया जाता है, क्योंकि नए गेंहूँ के आटे को खाकर पेट लग जाता था (ख़राब हो जाता था), अतः किसान तीन माह बाद इसके आटे का उपयोग करते थे। साथ ही आषाड़ माह में दलहनी फसल जिसमें गहथ, उड़द, लोभिया, सूंट आदि कि फसल खेतो में बो देते थे, इन दलहनी फसलों के बीज से जो बच जाता था, उसका नए गेंहूँ के आटे की रोटी को गहथ, लोभिया सूंट आदि को पीसकर उसके मसीटे को रोटी के अंदर भरकर स्वाले या भरी रोटी बनाई जाती थी। गेंहू के आटे से रोट बनाकर काश्तकार अपने क्षेत्रपाल देवता या वन देवता जो उनके पशुओं कि रक्षा करता था उनको चढ़ाया जाता था।
इस दिन परिवार के लोग सब साथ मिलकर उड़द, गहथ, रयान्स, लोबिया जो भी दाल घर पर उपलब्ध हो उसकी पुडिंग से भरी रोटी बनाकर घी के साथ खायी जाती है क्योंकि अब तक सभी प्रकार की दालें खेतों में बौ दी जाती हैं और खेतों में दाल की नई फसल भी तैयार होने लगती है।
इसी तरह एक और लोक मान्यता है, मानी जाती है कि पहाड़ी क्षेत्र में खरीफ़ की फ़सल में कौणी (एक प्रकार का पहाड़ी अनाज), यह त्यौहार कौणी की बाल आने के उपलक्ष्य में मनायी जाती है। कहते हैं कि कोणी की बाल हमेशा सावन की संक्रन्ति से पहले आ जाती है।
एक ओर बरसात में जब सभी प्रकार के अनाज के बीज मौसम की नमी के कारण उगने लगते हैं (बीजों का जर्मिनेशन) तो हमारे कुछ शाकाहारी पक्षी जैसे गौरैया, घुघुती आदि पक्षियों के लिए भोजन का अकाल हो जाता है तब यही कौणी प्रकृति में उनके भोजन का एक मात्र सहारा होती है।
पूर्व में सावन के पवित्र मास में इन पक्षियों को जिमाने का भी प्रचलन हमारे पहाड़ी क्षेत्रों में खूब था। इनके भोजन की व्यस्था के लिए लोग अपने आँगन में इन पक्षियों के लिये अनाज के दाने डाल कर चुगाते थे। आज जहाँ गौरैया को बचाने की एक मुहीम लोग चला रहे हैं, वहीं हमारे ये लोक पर्व पहले से प्राकृतिक सन्तुलन को बनाये रखने में सहायक थे।
हमें बस इतना करना है
इस साल रूटल्या त्यौहार 16 जुलाई 2023 को है। हम सभी उत्तराखंड के लोग इस त्यौहार को अपने उत्तराखंड के अनाजों एवं भू-कानून से जोड़ते हुए मना सकते हैं। हम सभी लोग 15 जुलाई को अपने घरों में उत्तराखंड के दलहनी अनाजों जैसे गहथ, सूंट, लोभिया, तोर आदि जो भी उपलब्ध हो उसके स्वाले या भरी रोटी बनाकर परिवार के साथ बैठकर खायें एवं इस दिन सभी लोग इस मुहिम के साथ उत्तराखंड में भू-कानून के सम्बंध मे अपने पैतृक आवास एवं भूमि की फ़ोटो सोशल मीडिया के माध्यम से स्वाले या भरी रोटी के साथ शेयर कर इस लोकपर्व को पुनः जीवित करते हुए अपने अनाज एवं भू-कानून की आवश्यकता को प्रदर्शित कर सकते हैं, क्योकि इन लोकपर्वों को आगे की पीढ़ियों को हमने क्रिएटिव बनाकर सौंपना है।
आइये ! आप भी इस मुहिम को सफल बनाइये, अपने लोकपर्व को उत्तराखंड के अनाजों एवं भू-कानून से जोड़कर इसे आगे बढ़ाइए। भूले हुए लोकपर्व को पुनः संचारित करें। साथ ही अपने-अपने परिचितों से इस लोकपर्व को मनाने की अपील करें।
—————–हरीश कंडवाल मनखी की कलम से।