लॉकडाउनः प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण के लिये मानव का एकांतवास
आकाश ज्ञान वाटिका। सोमवार, १३ अप्रैल, २०२०, ऋषिकेश।
[box type=”shadow” ]नगरों में हिरनों का विचरण, माँ गंगा के जल का चाँदी के समान स्वच्छ एवम प्रदूषण रहित होना अपने आप में मनुष्य को जीव जंतुओं एवम प्रकृति के साथ एकात्मक भाव से रहने के उस विसरित ज्ञान की पुनरावृत्ति कर पुनः स्थापित करने हेतु स्वम् प्रकृति द्वारा किये जाने वाली एक अनूठी प्रक्रिया का ही हिस्सा है। प्रकर्ति द्वारा मानवहित में यह स्वछता भरा अभियान कई स्वछता अभियानों की धज्जियां उड़ा सकता है।
‘यत्ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु।
मां ते मर्म विमृग्वरी या ते हृदयमर्पितम्।।’
अर्थात, हे ! धरती माता जब हम अनुशंधान के क्रम में आप को खोदें तो, उससे तुम्हारे मर्मस्थलों और हृदय को पीड़ा न पहुँचे।
अथर्ववेद के भूमि-सुक्तु में वर्णित यह उत्तम सुक्ति अपने आप में, इस वसुंधरा का एक विस्तृत एवम भावनात्मक वर्णन तत्कालीन ऋषयों की एक उच्चतम वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ-साथ उनकी प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता तथा इस रत्नगर्भा के साथ एकात्मक संबंध का भी प्रतीक है।
बता दें कि आज का आधुनिक विज्ञान अपने चर्मोत्कर्ष पर पहुँचने हेतु, जीवन की प्रत्येक दिशा में अपने नये आयाम स्थापित कर रहा है, ऐसे में उसके अनेक संवेदनहीन कृत्य ने मानव को इस स्थिति में पहुँचा दिया है, जहाँ उसे प्रकृति की प्रत्येक अविरल सम्पदा के संरक्षण एवम उसे निर्मल रखने से संबंधित मूलभूत ज्ञान एवम प्रयोगों की लेश मात्र भी चिंता नहीं रही है।
पिछले दशकों में भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में कई संस्थानों का निर्माण केवल इसी चिंता को लेकर किया गया है कि कैसे पर्यावरण को मध्य नजर रखते हुए सतत विकास किया जाय, परंतु संस्थानों के निर्माण से अधिक प्रत्येक व्यक्ति के अंदर छुपे उस निज प्राथमिक संस्कार के संस्थान को पुनर्जीवित किया जाना चाहिये जो उसके जीवन मूल्यों को समझने एवम उन सभी जीवन आधार तत्व के संरक्षण के लिए उसे प्रेरित करता रहे ।
अगर भारतीय ऋषि संस्कृति की परंपराओं की बात करें तो वैदिक काल से ही यहाँ का सम्पूर्ण जनमानस, पर्यावरण संरक्षण एवम प्रकृति के प्रत्येक अवयव को केवल आवश्यकता अनुसार ही प्रयोग करने का सबल पक्षधर होने के साथ ही ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः’ की वैदिक परिभाषाओं का भी सकल विश्व मे प्रबल उद्घोषक रहा है।
अगर वार्ता वर्तमान परिदृश्य की करें जहाँ एक अतिससूक्ष्म विषाणु ने इस जगत की सभी अनंत परमाणु शक्तियों से संपन्न शक्तियों एवम आधुनिक विज्ञान से युक्त महाशक्तियों को भी बड़ी बेबसता पूर्ण स्थिति में लाकर छोड़ दिया है, ऐसे में फिर भी यह राष्ट्र अपनी प्रबल इच्छा शक्ति एवम हर तरह के ज्ञान विज्ञान की अलख से पूरे विश्व को शांति, धैर्य और अपने साहस के प्रदीप्त स्तम्भ से आलोकित करने में लगा हुआ है।
हम जानते हैं कि इस देश का यह विशाल जनसमूह प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थितियों में, अपने अन्तःकरण में उस अनंत शक्ति के मानवता रूपी देव का सूक्ष्म दर्शन करता है, जो उसे जीव के साथ-साथ प्रकृति में विद्यमान प्रत्येक रचना के प्रति उसके उत्तरदायित्वों का प्रतिपल अभिज्ञान कराता रहता है।
वर्तमान परिदृश्य को देखकर यह भी कहा जा सकता है कि इस धरती पर कोई भी संकट चाहे वह मानव जाति या फिर प्रकृति के ऊपर ही क्यों न हो, हमेशा से ही मानव की लोभी सभ्यता का ही परिणाम रहा है।
विगत कुछ वर्षों से हम सब इस तरह की आपदाओं, घटना एवम दुर्घटनाओं के मूक साक्षी बन रहे हैं। आपदाएं प्राकृतिक हों या मानव निर्मित वह हमेशा से ही संस्कृति एवम सभ्यताओं की विरोधी होती हैं, ऐसे में हम सब की यह जिमेदारी बनती है कि हम आधुनिक विकास की इस अंधकारमयी गुहा में उस आलोक का सहारा लें जो हमारे समुख इसके मंगलकारी रास्ते का ही नहीं बल्कि उन सभी प्रलयकारी पथों को भी उजागर करे, जिससे मानव, विज्ञान को सिर्फ एक सुफल की तरह मानव जाति एवम प्रकृति के मध्य एकात्मक भाव का प्रतिपालक बनाने में अपनी सफल सहभागिता प्रदान करने के साथ ही सम्पूर्ण जगत का कल्याणकारी मार्गनिर्देशन करे।
इस दिशा में वर्तमान की यह स्थिति जिसमें मानव ने पहली बार अपने निजस्वार्थ और जिजिविषा को ध्यान में रखते हुए जो निर्णय लिए हैं, उससे अनजाने वश प्रकृति को अपने अनुपम सौंदर्य को संरक्षित करने में एवम सभी प्राकृतिक सम्पदाओं को एक सुयश प्रदान कर दिया है। मानव के इस सुकृत्य के लिए प्रकृति उसका आभार भी व्यक्त कर रही है। जबकि हम जानते हैं, मानव का यह कृत्य कोई प्रकृति के ऊपर दया भाव नहीं है, यह तो उसकी विवशता है कि कुछ ही दिन परन्तु उसने प्रकृति को अपना उन्मुक्त निनाद करने का मौका दिया है। उसकी यह विवशता भी उसके द्वारा ही निर्मित है, तो आश्चर्य कुछ भी नहीं होना चाहिये। आश्चर्य चकित कर देने वाली बात तो यह है कि जिस चिंता (पर्यवारण संरक्षण) के निवारण हेतु मनुज ने कई वर्षों से कई काल्पनिक योजनाओं एवम असक्षम मानव शक्तियों को लगा रखा है और कई आर्थिक सम्पदाओं एवम परियोजनाओं को भी इस कार्य हेतु झोंक रखा है, हर साल कई देश विदेश की गोष्ठियों का आयोजन कर, हर बार अबोध विज्ञान के पर्यटन को बढ़ावा देना आदि क्रियाकलापों से आज तक ऐसे मंगलकारी परिणाम देखने को नहीं मिले जो कुछ हप्तों के इस प्रतिबंद्ध (लॉकडाउन), जिसे मानव ने सिर्फ अपनी जिजीविषा के तहत योजनाओं में रखा है और इस योजना ने प्रकृति एवम पर्यावरण संबंधित उन सभी अंधी योजनाओं को भी आलोकित करने के साथ ही साथ मानव को भी भविष्य में पर्यावरण संरक्षण के लिए अचूक योजनाओं को क्रियान्वित करने हेतु दिव्य चक्षु प्रदान कर इस दिशा में सोचने और देखने का सुअवसर दिया है।
अब मानव को यह समझ लेना चाहिये कि सिर्फ संस्थानों के गठन एवम विज्ञान को आधार मान कर पर्यावरण एवं प्रकृति के इस व्यापक कला को संरक्षित नही किया जा सकता है।
इस सदी में मानव जाति के सबसे कठिन एवम विवशतापूर्ण काल में जहाँ जीवन के हर आयाम में एक भय है, वहीं इस जीवन के मूल आधार वायु, जल, आकाश, अग्नि, पृथ्वी से युक्त यह साकार प्रकृति एवम इसके पर्यावरण पर एक सकारात्मक परिवर्तन, जैव विविधता का संतुलन और धरा पर वन संपदा अपने सौंदर्य पर जिस तरह से आह्लादित दिख रही हैं, उस से तो यही अनुमान लगाया जा सकता है कि मानव केवल इस जीवनदायनी प्रकृति को कुछ पलों का एकांतवास देकर तो देखे, उसकी सभी समस्याओं हल प्राप्त हो जायेगा।
इस विषय पर हाल में ही हो रहे कई शोध भले ही इस सकारात्मकता को सैद्धान्तिक तौर से कुछ समय बाद प्रकाशित करें पर आप और हम इस मंगलकारी अभूतपूर्व पर्यावरणीय परिवर्तन को आजकल साक्षात तौर पर अपने चारों तरफ देख सकते हैं। बात सिर्फ हिमालयी राज्यों की ही नहीं है, वह तो हमेशा से ही प्रकृति के आमोद-प्रमोद से लाभान्वित हुए हैं, इस समय तो सौम्य प्रकृति एवम स्वछ पर्यावरण से अलंकृत प्राण वायु, महानगरों में भी अपनी अमृत से जनमानस के श्वांस विन्यास को बांधे हुए है। इस औषधिविहीन रोग में यह शुद्ध प्राण वायु और इसकी छाया में ऋषि पतंजलि का योगाशीष मानव के लिये रामबाण जैसा कल्याणकारी हो सकता है और कहा जाना चाहिये प्रकृति हर दशा में मानव को प्रेम ही प्रदान करती है, उसके पास प्रेम के अलावा और कुछ भी तो नहीं है, बस जरूरत है तो हमे अपनी कुटिल बुद्धि को समझाने की।
जिस तरह से इन दिनों कुछ मैदानी नगरों से भी बर्फ का दुपट्टा पहने हुए हिमालय साफ एवम स्वछ नजर आ रहा है, सभी तरह के वन्यजीव बिना किसी द्वेष भाव के मानव परिधि में विचरण कर रहे हों तथा शहर मध्य जलाशयों में स्नान करने आ रहे हों, जिस जगह पर आम दिनों में प्रत्येक व्यक्ति को भी स्नान करने की जगह मिल जाये तो वह भी बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। नगरों में हिरनों का विचरण, माँ गंगा के जल का चाँदी के समान स्वच्छ एवम प्रदूषण रहित होना अपने आप मे मनुष्य को जीव जंतुओं एवम प्रकृति के साथ एकात्मक भाव से रहने के उस विसरित ज्ञान की पुनरावृत्ति कर पुनः स्थापित करने हेतु स्वम् प्रकृति द्वारा किये जाने वाली एक अनूठी प्रक्रिया का ही हिस्सा है। प्रकृति द्वारा मानवहित में यह स्वछता भरा अभियान कई स्वछता अभियानों की धज्जियां उड़ा सकता है। यह अपने आप में अनुपम है और अतुलनीय भी।
दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्रकृति उस व्यवस्था में मग्न है जिससे आने वाले समय में वह फिर से मानव को उसकी अबोध पूर्ण एवम अभद्र लोभी क्रियाओं को करने के लिए एक स्वछ एवम भद्र प्रांगण दे सके, वास्तव में यह एक विरोधाभाष ही तो है कि “कुपुत्रों जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति”।
इस चर्चा के उपसंहार के तहत हम अपने से ही प्रश्न कर उन सभी समस्याओं का हल ढूँढ सकते हैं जो कई वर्षों से समय की ही गर्त में छिपे हुए हैं।
क्या यह वर्तमान परिस्थियाँ हमें पर्यावरण से सम्बंधित एक नई सकारात्मक दृष्टि नहीं प्रदान करती ? और यह सोचने का शुभ अवसर भी प्रदान करती है कि भारतीय मनीषा प्रकृति-पर्यावरण संरक्षण में कैसे अपनी उपयोगी भूमिका का वहन कर सकती है।
भारतीय मूल के शास्त्रीय, आध्यत्म एवं वैज्ञानिक सम्पदा के आलोक में यदि वैश्विक पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान खोजने का प्रयास हो, तो निश्चित ही परिणाम मंगलकारी होंगे। वैदिक ऋषि विज्ञानियों ने पृथ्वी से जिस प्रकार का रक्त-सम्बन्ध स्थापित किया है, वह इतना विलक्षण और आकर्षक है कि मानव के दैहिक माता-पिता से किसी भी प्रकार कम नहीं है। परन्तु यह भी जान लेना अति आवश्यक है कि ये सभी सूत्र सिर्फ गायन हेतु नहीं हैं कि किसी वैश्विक मंच पर इनका गायन करके सिर्फ अपने भारतीय होने की पुष्टि मात्र कर सकें। यह प्रक्रिया अतीत में कई बार हमारे राष्ट्राध्यक्षों द्वारा अपनाई जा चुकी है और उसके कोई सार्थक परिणाम देखने को नहीं मिले हैं।
तनिक हम विचार करें कि यदि प्रकृति के साथ इस प्रकार के रक्त-सम्बन्ध का भाव हमारे अन्तर्मन में स्थापित हो तो क्या हम किसी भी प्रकार निरादर कर सकते हैं इस भूमि का ? क्या प्रदूषित कर सकते हैं जल और वायु को ?, क्या भूखण्डों पर अपना स्वामित्व का दम्भ भरेंगे ?
इस समय केवल आवश्यकता है यह विचार एवम चिंतन करने का कि हम व्यक्ति के अंदर क्या उस संस्कार युक्त संस्थान का निर्माण कर सकते हैं जो अविरल वेद-विज्ञान को अंगीकार करके पर्यावरण संरक्षण का संरक्षक बन सके और सदैव विश्व-मांगल्य के भाव से ओत-प्रोत रहे। इसी भाव को लेकर हम यह कह सकते हैं:
‘कल्प वृक्ष युक्त हो धरा हमारी,
वन्य जीवों से शोभा जंगल की हो।
और जब चंदन कुंज से संवरे धरा हमारी,
तो क्यों छोड़ धरा चाह ‘मंगल’ की हो।।’
साभार:
डॉ० आशीष रतूड़ी ‘प्रज्ञेय’
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