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यदि मनुष्य है तो ईमानदारी से सोचे

हरिशंकर व्यास
ईमानदारी से सोचे, यदि मनुष्य है तो जरूर सोचे। हम क्या होते हुए है? क्या ईमानदारी, सदाचारी, सत्यवादी, विन्रम, संतोषी,  विश्वासी और प्रेम व करूणा, अंहिसा के सनातनी व्यापक धर्म की नैतिक मंजिले पाते हुए है या भ्रष्ट-बेईमान, झूठे, अंहकारी, भूखे, अविश्वासी, घृणा-नफरत, हिंसा से मन-मष्तिष्क, चित्त-वृति को भरते हुए है? मेरा मानना है हम बतौर नागरिक, समाज, धर्म व राष्ट्र उन वृतियों, प्रवृतियों, मन और व्यवहार में वे अवगुण धारते हुए है जिसकी कल्पना कलियुग के सर्वाधिक बुरे समय में भी नहीं थी। निश्चित ही किसी कौम और धर्म का नैतिक पतन देश-काल की आबोहवा की लीला से है। लेकिन हम भारतीयों की समस्या यह है कि हम पहले से ही कलियुग की जिंदगी जी रहे है तो और कितने कलियुगी बनेंगे? कितने और भ्रष्टाचारी, दुराचारी, अंहकारी, झूठे, अविश्वासी, नफरती बनेंगे? व्यक्ति, घर-परिवार, कुनबे, खांप, जात-पात, राजनीति, समाज के वेयक्तिक तथा सामुदायिक व्यवहार में यदि ‘घृणा’ ही परमो जीवन धर्म बना तो अपना बनना कैसा होगा?  कैसा तो विकसित भारत होगा? कैसे एक भारत, श्रेष्ठ भारत जैसी जुमलेबाजी कोई शक्ल लेगी?

घृणा का जन्म प्रतिक्रिया में होता है। वह आंशका, असुरक्षा, ईर्ष्या और भूख से हवा पाती है और मंद-कुंद बुद्धी से पोषित होती है।
दुनिया की दूसरी नस्लों में भी घृणा का जीवन व्यवहार है। लेकिन हम हिंदुओं की समाज रचना में ऐसे असंख्य कारण है जिससे पग, पग पर, घर-घर में भूख, ईर्ष्या, असुरक्षा इस अनुपात में बढ़ते हुए है कि जहां चुनाव-राजनीति में घृणा है वही सामाजिक रिश्तों में जलन और नफरत है। वेयक्तिक रिश्तों की असुरक्षाओं से घृणा के अलग नए रूप है। कानून-व्यवस्था, नैरेटिव, बुद्धी सब नफरत में दौड़ती हुई है।
इसलिए कटु सत्य है कि 1947 के बाद, विकास की कथित सीढियों के हर मुकाम पर भारत का इस नाते पतन है क्योंकि हर सीढ़ी पर भारतीय दिल-दिमाग भ्रष्ट बना है। लोगों की एक दूसरे की समझ में यह हाल है कि कमोबेस हर व्यक्ति सामने वाले का चेहरा व नाम सुन, उसकी जात, उसके धर्म, उसके व्यवहार, स्वभाव में या तो खतरा बूझता है, ईर्ष्या करता है या उसे लूटने-ठगने की तिकड़म बनाता है और नकली व झूठा व्यवहार बनाता है।

हां, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर किसी गांव-गली का कोई पंच-सरपंच जब सामने दूसरे को बूझता है तो ऐसा सहज-सरल मनुष्य स्वभाव में नहीं होता है। बल्कि वह सामने वाले को इस नजर से तौलता है कि इससे मेरा क्या? यह किस जात का, किस धर्म का? मेरे लिए ठिक या बुरा? मुझे चाहने वाला या मेरे से नफरत करने वाला? मेरा वोट है या दुश्मन का? मेरी पार्टी या दुश्मन की पार्टी? मेरी जात का या फंला जात का? पैसे वाला या गरीब? और लोगों का इस तरह तौलते हुए भारत के समाज, भारत की इकोनोमी, बाजार, राजनीति, अदालत, हर तरह की व्यवस्था में वह व्यवहार है जिसमें एक-दूसरे पर विश्वास कम है अविश्वास अधिक। एक-दूसरे के प्रति इंसानियत का व्यवहार कम है और नफरत व बदनियती अधिक है। एक-दूसरे की सेवा कम है और लूट अधिक। भलाई कम है बुराई और स्वार्थ अधिक।  ऐकलखोरापना अधिक है और दूसरे की चिंता कम है। ‘मैं’ अंहम है और ‘हम’ का दिखावा है!
यह सब क्यों?

इसलिए क्योंकि भारत के हम लोग दिमागी तौर पर विकृत हो रहे है। आजादी के बाद का हमारा कुल सफर नैतिक गिरावट का है। और भारत के लिए इक्कीसवीं सदी गिरावट की पाताल भूमि है। वजह राजनीति है। पहले जात की राजनीति फिर धर्म की राजनीति ने हम हिंदुओं में छीनाझपटी का वह संस्कार, स्वभाव पैंठाया है जिसमें मूल्यवत्ता, नैतिकता, काबलियत, चाल, चेहरे, चरित्र का कोई मान नहीं रहा। अब हर व्यक्ति, हर जाति, हर धर्म, अपनी भूख, ईर्ष्या, असुरक्षा में घृणा के इतने रूप धारे हुए है कि ओर- छोर नहीं मिलेगा।
निश्चित ही ‘घृणा’ में दुनिया की बाकि सभ्यताएं भी है। लेकिन हिंदुओं और बाकि धर्मों, सभ्यताओं का फर्क यह है कि हमने आजादी के बाद असमानताओं को नए आकार, नए लेवल दिए है। बाकि दुनिया में यदि रंगभेद, नस्ल भेद, वर्गभेद, धर्म भेद जैसी सर्वव्यापी असमानताएं है वहीं हम हिंदुओं की ऐसी कुछ यूनिक खूबियां है जिसमें इस राजनीति से मुक्ति संभव हीं नहीं है कि दलित और जाट में नफरत नहीं फैलाई जाए। फारवर्ड बनाम बेकवर्ड आपस में लड़े नहीं। फारवर्ड में ब्राह्मण बनाम राजपूत भिड़े नहीं। वैसे ही बेकवर्ड में भी महाबेकवर्ड, दलितों में भी महादलित तो जयश्री राम बनाम महाकाली, मराठा बनाम गुजराती, उत्तर बनाम दक्षिण, हिंदू बनाम सिख आदि, आदि की असमानताओं में बस चिंगारी भर भडकानी है लोग अपने आप या तो घृणा में सडक़ पर उतर आएंगे या वोट की कतार में लग जातियों, चेहरों के खिलाफ नफरत में वोट डालेंगे।

कोई भी काम बुद्धी, विवेक, सत्य, ईमानदारी, काबलियत की कसौटी में अब नहीं है। हर काम, हर फैसला इस स्वार्थ, इस घृणा, इस बदले और इस ख्यास में है कि प्रतिस्पर्धी दुश्मन है, घृणित है। सोचे, राजनीति में नरेंद्र मोदी अपने किस प्रतिद्वंदी से घृणा नहीं करते होंगे? सोचे भाजपा का कौन सा राज्यपाल विपक्ष के मुख्यमंत्री को दुश्मन की निगाह से नहीं देखता होगा? कौन सा अधिकारी, सचिव, नौकरशाह अपनी महत्वांकाक्षा, कंपीटिशन में प्रतिस्पर्धी को डाउन करने के लिए वे तिकड़में नहीं अपनाता होगा जो अनैतिक है? इस क्रम को भारत में किसी भी लेवल, मानवीय रिश्तों, सेवा, चिकित्सा, शिक्षा की दुकानों, उद्यमों, व्यवहारों में आजमाएं तो चौतरफा समझ आएगा हम लोगों की वृति, प्रवृति क्या हो गई है? या तो स्वार्थ है या घृणा।

हाल के ऐसे कुछ फोटों दिखे, खबरें जानी, जिससे सवाल उठा घृणा किस-किस तरह बोलती हुई है? ठिक है अरविंद केजरीवाल से मोदी, शाह, भाजपा सब घृणा करें लेकिन ऐसा क्या जो उनके छोड़े मकान और नई मुख्यमंत्री आतिशी की उस पर शिफ्टिंग में भी दुश्मन को बदनाम करने का मौका नहीं चूका जाए।  क्या तुक है जो एक चुनाव जीतने के लिए हिंदुओं को घृणा के ये टीके लगे कि बंटोगें नहीं तो कटोंगे! मुझे बहुत बुरा लगा जब उपराज्यपाल मनोज सिंहा और उमर अब्दुला का फोटो देखा। मानों भविष्य का संकेत। उमर अब्दुला कश्मीरी वेशभूषा में ऐंठ और अकड़ के अंदाज में और मनोज सिंहा भी सर्द। और कोई न माने इस बात को लेकिन मेरी फील है इस दफा बंगाल में दुर्गा पूजा फीकी थी। राजनीति की घृणा की छाप त्योहार पर थी। क्या अर्थ है इसका जो बंगाल का राज्यपाल ऐलान करें कि वे मुख्यमंत्री के साथ कोई मंच साझा नहीं करेंगे? और ऐसी क्या दुश्मनी जो योगी आदित्यनाथ ने अखिलेश यादव को जेपी की मूर्ति पर माला नहीं चढ़ाने दी। उसे रोकने के लिए पुलिस की भारी तैनातनी और मानों भारत व पाकिस्तान के बीच शक्ति परीक्षण हो!

घृणा का हिंदू-मुस्लिम मामला और हिंसा अपनी जगह है। असल बात है कि जैसे राजनीति की छोटी-छोटी बातों में भी खुन्नस है तो व्यक्तियों, परिवारों, समाज के रिश्तों में भी आंशका, असुरक्षा, ईर्ष्या और भूख में घृणा का जो नया व्यवहार बन रहा है वह जातिगत दंगल के अलावा भी है। और इसकी कोई सुध नहीं है। हाल में मालूम हुआ भारत में लडक़े-लडकियां शादी के पहले अब प्रीनप समझौते याकि लिखित अनुबंध कर रहे है ताकि शादी के बाद कानूनी अधिकारों, प्रोपर्टी के मामले पहले तय हो। गुजरात से खबर थी कि पहले युवती ने दुल्हन बनने का एग्रीमेंट किया, परिवार से मोटी रकम मांगी और फिर शादी से पहले गायब हो गई। इस तरह के वेयक्तिक रिश्तों में भूख, असुरक्षा, पंगेबाजी, नफरत और दुश्मनी में क्या-क्या फिर होता है इसका रूटिन पुलिस थानों, अदालतों में अब ऐसा भयावह है जिस पर लिखना महाभारत जैसा होगा!

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Ghanshyam Chandra Joshi

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