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उत्तराखण्ड

आंधी से फैली आग, तीन मासूमों की मौत; दस साल में तीसरी बार विकराल हुई आग

देहरादून,: मौसम में आए बदलाव ने उत्तरकाशी जिले में वन गुर्जरों के डेरे पर कहर ढाया। देर शाम आई आंधी के दौरान चूल्हे की आग भड़क गई और एक पेड़ भी डेरे पर गिर गया। हादसे में तीन मासूमों की जलकर मौत हो गई। पुलिस और एसडीआरएफ की टीम मौके पहुंच गई थी।

घटना उत्तरकाशी से 185 किलोमीटर दूर मोरी तहसील के भंकवाड गांव की है। गांव से कुछ दूर वन गुर्जरों के आठ से दस डेरे हैं। इनमें एक-एक डेरा सुलेमान और अकबर का भी है। देर शाम सुलेमान के डेरे में परिवार शाम के भोजन की तैयारी कर रहा था। तभी आंधी आ गई। इससे चीड़ का एक पेड़ डेरे के ऊपर गिरा। इस बीच चूल्हे की आग से आसपास की सूखी घास सुलग गई और देखते ही देखते यह ज्वाला में तब्दील हो गई। इससे वहां चीख पुकार शुरू हो गई।

सुलेमान और उसकी पत्नी बदहवास बाहर निकल आए, लेकिन बच्चे फंस गए। इस बीच आसपास के ग्रामीण आग बुझाने में जुट गए, लेकिन तेज हवा के कारण इसमें दिक्कत आने लगी। आंधी थमने के बाद आग पर काबू पाया जा सका।

मौके पर पहुंचे पुरोला के एसडीएम पीएस राणा ने बताया कि हादसे के वक्त सुलेमान की बेटी कामिया (5) और बेटे यासीन  (6) के अलावा, पडोस के डेरे में उमरदीन के दो बच्चे मोहम्मद जेब (3) व जावेद (1) वहां खेल रहे थे। यासीन तो किसी तरह डेरे से बाहर आ गया, लेकिन अन्य तीन बच्चों की मौत हो गई। यासीन भी झुलस गया है और उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया है।

भंकवाड के प्रधान चत्तर सिंह ने बताया कि आग ने अकबर के डेरे को भी चपेट में लिया, लेकिन परिवार के लोग वहां से दूर जा चुके थे। हालांकि वहां रखा सामान राख हो गया।

आंधी के कारण पुरोला के पास मोरी बाजार में भी पेड़ गिर गया। आसपास के लोग बाल-बाल बचे, लेकिन चार दुपहिया वाहन क्षतिग्रस्त हो गए।

स्टर्डिया कैमिकल प्लांट के समीप आग से हड़कंप

ऋषिकेश में वीरभद्र मार्ग स्थित स्टर्डिया कैमिकल प्लांट के समीप स्थित झाडिय़ों में भीषण आग लग गई। जिससे आसपास के क्षेत्र में हड़कंप मच गया। दमकल दस्ते ने किसी तरह आग पर काबू पाया।

स्टर्डिया कैमिकल फैक्ट्री के समीप झाड़ुयों में आग की सूचना पाकर दमकल दस्ता मौके पर पहुंचा। दमकल दस्ते ने आग पर काबू पा भी लिया था कि अचानक चले तेज आंधी तूफान से आग ने और विकराल रूप धारण कर लिया। फैक्ट्री के समीप ही आवासीय कॉलोनियां भी हैं, आग का विकराल रूप देखकर आसपास के लोग भी सकते में आ गए।

घरों की ओर फैलती आग को देखकर लोग अपने घरों की छतों पर पानी की बाल्टियां लेकर जमा हो गए। मगर इसी बीच तेज बारिश ने दमकल के काम को आसान कर दिया। ओले के साथ तेज बारिश से आग बुझ गई।

10 साल में तीसरी बार विकराल हुई जंगल की आग

71 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में बेकाबू हुई जंगलों की आग हर किसी को बेचैन किए हुए है। हालांकि, यह पहला मौका नहीं है, जब आग इतनी विकराल हुई। अविभाजित उप्र में 1995 में यहां के जंगलों में व्यापक आग लगी थी और 6.22 लाख हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित हुआ था। उत्तराखंड बनने के बाद भी ऐसी स्थिति बनती रही है।

बीते 10 साल के वक्फे को ही लें तो ये तीसरा अवसर है, जब आग से 4100 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र तबाह हुआ है। यह बात अलग है कि इस सबके बावजूद दावानल पर नियंत्रण के लिए वैसी ठोस कार्ययोजना नजर नहीं आई, जिसकी दरकार है।

उत्तराखंड में वनों की आग से सुरक्षा के लिहाज से फायर सीजन, यानी 15 फरवरी से 15 जून का समय बेहद संवेदनशील माना जाता है। इस फायर सीजन को ही देखें तो 19 फरवरी को उत्तरकाशी के टौंस वन प्रभाग से शुरू हुआ दावानल का सिलसिला अब राज्यभर में विकराल रूप धारण कर चुका है।

ऐसा नहीं है जंगलों में आग की यह घटनाएं पहली मर्तबा हो रही हों। थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो यह क्रम लगातार चला आ रहा है। 1995 में यहां कुल वन क्षेत्र का 17.945 फीसद हिस्सा आग से तबाह हो गया था। नौ नवंबर 2000 को उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद भी दावानल की घटनाओं में कोई कमी नहीं आई है।

2004 में तो 4850 हेक्टेयर जंगल सुलगा था। पिछले 10 सालों यानी 2009 से अब तक की तस्वीर देखें तो यह तीसरा मौका है, जब आग से 4100 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र प्रभावित हुआ है। इससे पहले वर्ष 2009 व 2016 में क्रमश: 4115.50 व 4433.75 हेक्टेयर जंगल झुलसा था। 2016 में तो पहली बार सेना और हेलीकॉप्टरों की मदद आग बुझाने में लेनी पड़ी थी।

बावजूद इसके वन महकमे ने आग से निबटने के मद्देनजर पिछली घटनाओं से सबक लेने की जरूरत नहीं समझी। यह बात अलग है कि 2016 में दावानल पर नियंत्रण के मद्देनजर इससे सबक लेकर हर साल समय रहते प्रभावी कदम उठाने की बात विभाग ने कही थी।

अलबत्ता, 2017 में मौसम के साथ देने से आग की घटनाएं कुछ कम हुई तो विभाग इसे भूल गया। इसी का परिणाम रहा कि इस बार आग  विकराल हुई तो विभाग के होश फाख्ता हो गए। हालांकि, अब संसाधन झोंके गए हैं। प्रयास भी हो रहे हैं, मगर आग थमने का नाम नहीं ले रही।

साफ है कि यदि फायर सीजन से पहले जंगलों में फायर लाइनों के फुकान समेत अन्य कदम उठाए जाते तो स्थिति नियंत्रण में रहती और आग पर काबू पाने के लिए इंद्रदेव की ओर मुंह नहीं ताकना पड़ता।

10 सालों में राज्य में दावानल

वर्ष————प्रभावित क्षेत्र————क्षति

2018——–4189.286————81.17 (अब तक)

2017——-1244.64————–18.34

2016——-4433.75————–46.50

2015———701.36—————-7.94

2014———-930.33————–4.39

2013———-384.05————–4.28

2012———-2826.30————3.03

2011———–231.75————-0.30

2010———-1610.82———–0.05

2009———–4115—————4.79

(नोट: क्षेत्र हेक्टेयर और क्षति लाख में)

जंगल की आग (मंगलवार तक)

क्षेत्र—————–घटनाएं—–प्रभावित क्षेत्र———क्षति

गढ़वाल————–890——-2442.4——-4722756.5

कुमाऊं—————614——-1244.5——–2595935

वन्यजीव संगठन—71——–153.636——–263806

शिवालिक———–371——–348.286——-534558.5

(नोट: क्षेत्र हेक्टेयर और क्षति रुपये में)

एक नजर में उत्तराखंड में जंगल की आग

– उत्तराखंड के जंगलों में आग से सभी वन क्षेत्रों में भारी नुकसान पहुंचा है। विभागीय आंकड़ों को ही देखें तो अब राज्य में आग की 1946 घटनाएं हो चुकी हैं, जिसमें 4189.286 हेक्टेयर वन क्षेत्र झुलसा है। क्षति आंकी गई है 8117056 रुपये।

-उत्तराखंड में इस फायर सीजन में जंगलों में आग की पहली घटना 19 फरवरी 2018 को उत्तरकाशी जिले के टौंस वन प्रभाग में सामने आई। इसमें 0.5 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ और क्षति आंकी गई 1150 रुपये।

-आग पर नियंत्रण के लिए वर्तमान में 11322 लोग जुटे हैं। इनमें 8447 वनकर्मी, 2761 स्थानीय लोग, 59 राजस्व विभाग के कर्मी, पुलिस के 31, एनडीआरएफ के 06 और एसडीआरएफ के 18 जवान शामिल हैं। इसके अलावा 1072 वाहनों और पानी के 13 टैंकरों की सेवाएं ली जा रही हैं।

– आग से अब तक 4189.286 हेक्टेयर वन क्षेत्र झुलसा है और क्षति आंकी गई है 8117056 रुपये। जंगलों में 54.7 हेक्टयेर पौधरोपण तबाह हुआ है, जिनमें एक से दो साल की अवधि के 10 हजार से अधिक पौधे थे। जंगल की आग के गांवों के नजदीक तक आने से दिक्कतें बढ़ी हैं। साथ ही राज्यभर में धुएं की धुंध छायी रहने से दृश्यता कम हुई है। यही नहीं, आग से जैव विविधता को क्षति पहुंचने के साथ ही सरीसृप वर्ग के जंतुओं के साथ ही परिंदों पर सर्वाधिक असर पड़ता है। अधिकांशत: परिंदे इस सीजन में अंडे देते हैं, जो आग लगने पर जल जाते हैं। साथ ही आग प्रभावित क्षेत्रों में मिट्टी की पकड़ ढीली होने से बरसात में भूक्षरण का खतरा बढ़ जाता है।

-जंगलों में अच्छी घास के लिए भी आग लगाई जाती है। माना जाता है कि आग लगाने के बाद बरसात में अच्छी घास पनपती है।

 

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Ghanshyam Chandra Joshi

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