Article 370 इस बड़ी भूल की पृष्ठभूमि कैसे एक राज्य को देश से अलग रखा
नई दिल्ली देश की आजादी की चाह में जिन राष्ट्र भक्तों ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दी, उनके अखंड भारत के सपनों को जम्मू-कश्मीर के यह विशेष प्रावधान मुंह चिढ़ाते रहे हैं। ये विशेष प्रावधान देश की अखंडता की राह में बड़ी बाधा साबित हो रहे थे। देश के मानचित्र में यह उसकी सीमारेखा के भीतर भले ही दिखता रहा हो, लेकिन आंतरिक नियम-कानूनों को लेकर शेष भारत से यह कटा रहा।
कुछ खास मामलों को छोड़कर जम्मू-कश्मीर के लिए केंद्र सरकार कोई कानून नहीं लागू कर सकती थी। कोई वहां जमीन नहीं खरीद सकता था। निवेश के नाम पर कोई उद्योग वहां नहीं लगाया जा सकता था…आदि आदि इत्यादि। ये तमाम उपबंधों को बनाए रखने को लेकर कई स्थानीय राजनीतिक दल दबाव बनाने में जुटे थे। इनकी राजनीतिक विरासत ही इन्हीं मसलों पर टिकी रही। अब जब केंद्र सरकार ने जम्मू कश्मीर को लेकर इस ऐतिहासिक भूल को सुधारने की दिशा में कदम बढ़ा दिया है तो सही मायने में आजादी के मतवालों और शहीदों के अखंड भारत का सपना साकार हुआ है। आइए इस ऐतिहासिक भूल की पृष्ठभूमि पर डालते हैं एक नजर:
अनुच्छेद 370 का विशेष प्रावधान
बात आजादी के दो साल बाद यानी 1949 की है। अक्टूबर का महीना था। 17 तारीख थी। इसी दिन संविधान में इस अनुच्छेद को जोड़कर जम्मू-कश्मीर राज्य को भारतीय संवैधानिक प्रावधानों से अलग (अनुच्छेद एक और खुद अनुच्छेद 370 को छोड़कर) कर दिया गया। इस अनुच्छेद के अनुसार यह राज्य अपना संविधान खुद तैयार कर सकता था। यह अनुच्छेद संसद की विधायी शक्तियों को जम्मू-कश्मीर पर लागू होने से रोकता है। राज्य के भारत में विलय संबंधी दस्तावेज (इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन) में जो हिदायतें दी गई हैं उसके अनुसार उसमें वर्णित मामलों पर केंद्रीय कानून बनाने के लिए भी राज्य से सलाह-मशविरा करना होगा। इसके इतर अन्य मामलों पर केंद्रीय कानून बनाने के लिए राज्य की अनुमति लेनी अनिवार्य है।
भारत में विलय संबंधी दस्तावेज
भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के लिए भारतीय स्वतंत्रता कानून, 1947 लागू हुआ। इस कानून में 600 रियासतों की संप्रभुता को बरकरार रखते हुए उन्हें तीन विकल्प दिए गए थे। पहला, वे स्वतंत्र देश के रूप में अपना अस्तित्व बरकरार रख सकते थे। वे भारत में शामिल हो सकते थे और अंतिम विकल्प के तहत वे रियासतें पाकिस्तान के साथ जा सकती थीं। वे रियासतें जो भारत या पाकिस्तान के साथ जुड़ने की इच्छुक थीं, उनका विलय इसी इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन के तहत किया गया। हालांकि इसका कोई तय मसौदा नहीं था, लेकिन हर रियासत शामिल होने की शर्तों को विशेष उल्लेख करने को स्वतंत्र थी। हालांकि इस समझौते में शामिल होने वाली रियासतों की शर्तों का सम्मान जरूरी था, विपरीत स्थिति में रियासत अपने मूल स्थिति में जाने को स्वतंत्र थी।
कश्मीर के विलय की शर्तें
कश्मीर के भारत में विलय को लेकर इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन में प्रावधान किया गया कि रक्षा, विदेश मामले और संचार को छोड़कर केंद्रीय संसद राज्य को लेकर कोई कानून नहीं बना सकेगी। दस्तावेज के क्लाज पांच में जम्मूकश्मीर के शासक तत्कालीन राजा हरि सिंह विशेष रूप से कहा,‘मेरे विलय के दस्तावेज में किसी भी कानून द्वारा या भारतीय स्वतंत्रता कानून द्वारा कोई संशोधन नहीं किया जा सकता है जब तक कि मुझे वह स्वीकार्य न हो।’
ऐसे हुआ विलय
तत्कालीन जम्मू कश्मीर के शासक महाराजा हरिसिंह शुरुआत में तो स्वतंत्र रहने के इच्छुक थे और भारत और पाकिस्तान से यथास्थिति का समझौता करना चाह रहे थे। पाकिस्तान से इस आशय का समझौता वे कर भी चुके थे। लेकिन स्थिति को करवट लेते देर नहीं लगी। पाकिस्तान की नापाक नजरें इस रियासत पर शुरू से लगी हुई थीं। मुस्लिम बहुल इस रियासत को वह खोना नहीं चाहता था, इसीलिए अपने सैनिकों और जनजातियों के साथ रियासत पर हमला कर दिया। बेचारे हरिसिंह के पास अपनी रियासत को बचाने का विकल्प अब एक ही था। उन्होंने भारत से मदद मांगी। उसके बदले में उन्होंने भारत अपनी रियासत के विलय को स्वीकार कर लिया। 26 अक्टूबर,1947 को उन्होंने इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन (आइओए) पर हस्ताक्षर किए। गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने इसे 27 अक्टूबर, 1947 को स्वीकार किया।
भारत की स्पष्ट नीति थी कि विलय के समय विवाद होने की स्थिति में उसके समाधान में रियासत के शासक के मनमाने निर्णय की जगह रियासत की जनभावना को ध्यान में रखा जाएगा। भारत के आइओए के स्वीकार करने पर लॉर्ड माउंटबेटन ने कहा था, ‘यह मेरी सरकार की इच्छा है कि जैसे ही जम्मू कश्मीर की कानून व्यवस्था दुरुस्त होती है और वहां की जमीन से घुसपैठिए बाहर खदेड़े जाएंगे तो वहां की अवाम की भावना के अनुसार राज्य का विलय सुनिश्चित किया जाएगा।’ 1948 के जम्मू कश्मीर पर भारत सरकार के श्वेत पत्र में विलय को विशुद्ध रूप से अस्थायी और तात्कालिक बताया गया।
लागू हुआ अनुच्छेद 370
इस अनुच्छेद का मूल मसौदा जम्मू कश्मीर सरकार ने मुहैया कराया। इसके बाद अनुच्छेद 306 ए (अब अनुच्छेद 370) में संशोधन और बदलाव के लिए 27 मई 1949 को इसे संविधान सभा से पारित कराया गया। 17 अक्टूबर 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा अनुच्छेद 370 को भारतीय संविधान में जोड़ा गया।
एक नजर में अनुच्छेद 370
नवंबर, 1956 में जम्मू कश्मीर राज्य के संविधान का काम पूरा हुआ और 26 जनवरी, 1957 को राज्य में विशेष संविधान लागू कर दिया गया। संविधान का अनुच्छेद 370 दरअसल केंद्र से जम्मू-कश्मीर के रिश्तों की रूपरेखा है। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने पांच महीनों की बातचीत के बाद अनुच्छेद 370 को संविधान में जोड़ा गया। अनुच्छेद 370 के प्रावधानों के अनुसार, रक्षा, विदेश नीति और संचार मामलों को छोड़कर किसी अन्य मामले से जुड़ा कानून बनाने और लागू करवाने के लिए केंद्र को राज्य सरकार की अनुमति लेनी होगी। इसी विशेष दर्जें के कारण जम्मू-कश्मीर राज्य पर संविधान का अनुच्छेद 356 लागू नहीं होता। इस कारण भारत के राष्ट्रपति के पास राज्य के संविधान को बर्खास्त करने का अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 370 के चलते, जम्मू-कश्मीर का अलग झंडा होता है। इसके साथ ही जम्मू -कश्मीर की विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्षों का होता है। भारत के राष्ट्रपति अनुच्छेद 370 की वजह से जम्मू-कश्मीर में आर्थिक आपालकाल नहीं लगा सकते हैं।
अनुच्छेद 35 ए
कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने सबसे पहले इस कानून को 1927 में पारित किया। इस कानून को लागू करने का उनका एकमात्र मकसद उत्तरी राज्य पंजाब से रियासत में आ रही लोगों की बाढ़ को रोकना था। कुछ रिपोर्टों में ये बात भी सामने आई कि ऐसा उन्होंने कुछ प्रभावशाली कश्मीरी हिंदुओं के आग्रह पर किया। अभी इस आशय का कानून गुलाम कश्मीर में लागू है। भारत में इस कानून का वर्तमान रूप 1954 में लागू हुआ। भारत के भीतर जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले कानूनी उपबंध अनुच्छेद 370 का इसे हिस्सा बनाया गया। 14 मई, 1954 को लागू हुए इस कानून के समय राज्य में जो लोग राज्य में रह रहे थे या उसके दस साल के बाद कभी भी जो लोग रहने आए, उन्हें राज्य का स्थायी निवासी माना गया। हालांकि राज्य की विधानसभा दो तिहाई बहुमत से कभी भी इस परिभाषा को बदलने की ताकत रखती थी। इस अनुच्छेद के अनुसार राज्य के स्थायी निवासी ही यहां रोजगार, छात्रवृत्ति और अन्य सुविधाओं के हकदार बने। सबसे बड़ा लाभ तो स्थायी निवासियों के लिए यह है कि सिर्फ वे ही वहां जमीन, संपत्ति आदि का स्वामित्व उन्हीं के पास होगा। इस तरह से प्रदेश को शेष भारत के संवैधानिक प्रावधानों से अलहदा ताकत दी गई।