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एक अच्छे, भले और नेक प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह

हरिशंकर व्यास
शीर्षक चौंका सकता है। पर जरा समकालीन भारत अनुभवों और उनकी दिशा में झांके तो अगले बीस-पच्चीस वर्षों की क्या भारत संभावना दिखेगी? भारत पिछले दस वर्षों की विरासत में कदम उठाता हुआ होगा। इस विरासत का मंत्र और अनुभव बुद्धि नहीं लाठी है। हार्वर्ड नहीं हार्डवर्क है। सत्य नहीं झूठ है। सौम्यता नहीं अहंकार है। विनम्रता नहीं निष्ठुरता है। कानून नहीं बुलडोजर है। मान मर्यादा नहीं लंगूरपना है। विचार और बहस नहीं गाली तथा ट्रोल है। तर्क नहीं है लाठी है। प्रबुद्धता नहीं मूर्खता है। चाल, चेहरा, चरित्र नहीं, बल्कि अकड़, लालच और कदाचार है। इस तरह का निष्कर्ष 2014 के समय में अकल्पनीय था। तब अन्ना हजारे, रामदेव, अरविंद केजरीवाल, नरेंद्र मोदी के हुंकारों, आंदोलनों के उमड़े जन सैलाबों की तलहटी में सत्य छुपा हुआ था। अज्ञात था। ऐसा होना हम हिंदुओं की नियति से है। हिंदुओं का भाग्य है जो वह गांधी के पीछे चले या अन्ना हजारे के या हाथ में कमल ले कर चले या झाडू, उसे वही झूठा अवतार मिलता है जो उसकी कलियुगी नियति है।

उस नाते डॉ. मनमोहन सिंह स्वतंत्र भारत के इतिहास में अपवाद थे। वे अकेले प्रधानमंत्री हैं, जिनकी शख्सियत ने झूठ, फरेब से लोगों का बहकाने, लोगों में जादू बनाने, दैवीय अवतार की इमेज बनाने, लोगों को डराने धमकाने या उनके वोट खरीदने जैसा वह कोई छल नहीं किया, वह राजनीति नहीं की जो आजाद भारत की राजनीति का ट्रेंडमार्क है। बावजूद इसके वे भारत के वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री थे। उसी के कर्म फल में वैश्विक बिरादरी तक ने, उन्हे स्मरण करते हुए एक युगांतरकारी, बुद्धिमान, समझदार, सौम्य और श्रेष्ठ प्रधानमंत्री की सच्ची भाव भंगिमा में श्रद्धांजलि दी है।

यह वस्तुनिष्ठ श्रद्धांजलि पिछले दस वर्षों के नरेंद्र मोदी, अरविंद केजरीवाल के शासन अनुभवों के परिप्रेक्ष्य में, समकालीन अनुभवों के संदर्भ तथा भारत की भावी दिशा के भान से भी है। इतिहास की कसौटी है जो घटना और नेतृत्व का मूल्यांकन पचास साल बाद किया जाता है। कोई युद्ध हुआ, राजा या प्रधानमंत्री मरा तो उसके बाद के अनुभवों, प्रभावों के पच्चीस-पचास साल बाद ही इतिहास फैसला लेता है कि नेहरू ने भारत बनाया था या बिगाड़ा था। नेहरू के आइडिया ऑफ इंडिया और उसकी विरासत के प्रधानमंत्री और राजनीति देश हित में थी या देश को बरबादी की और ले जाने वाली। डॉ. मनमोहन सिंह की शख्सियत कर्तव्यनिष्ठ थी। इतिहास निरपेक्ष थी। शासन के आखिर में जरूर उन्होंने अन्ना हजारे-केजरीवाल-मोदी के भूचालों में अपने मुंह से यह बोला था, उम्मीद जताई थी कि इतिहास उनके प्रति दयालु होगा!
और मेरी राय में उनका इतिहास भारत के आखिरी बुद्धिमान, उम्दा प्रधानमंत्री के नाते अमिट है। एक अच्छे’, भले’ और नेक’ प्रधानमंत्री। और सोचें, इन तीन शब्दों से अधिक मनुष्यों के बीच मनुष्य को और क्या पुण्यता चाहिए!

मैंने बतौर पत्रकार उनके प्रधानमंत्री रहते उनकी आलोचना की है तो उनकी प्रशंसा भी की। तारीफ खासकर तब जब डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने पहले कार्यकाल में अमेरिका के साथ एटमी करार के लिए अपनी सरकार दांव पर लगाई थी। जिस वाम मोर्चे पर मनमोहन सरकार टिकी थी उसके घोर विरोध, सीपीएम नेता प्रकाश करात द्वारा सैद्धांतिक आधार पर वैयक्तिक प्रतिष्ठा दांव पर लगाने तथा वामपंथी पत्रकारों की चिल्लपों, सोनिया गांधी व अहमद पटेल की चिंताओं के बावजूद मनमोहन सिंह ने एटमी करार किया। भारत का वैश्विक अछूतपन मिटाया। वह फैसला देश की सामरिक चिंता, सुरक्षा, भू राजनीति और वैश्विक जमात में भारत के स्थान के खातिर वैसा ही दुस्साहसी फैसला था जैसा मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव की कमान में वित्त नीति में परिवर्तनों का था।

मेरा पीवी नरसिंह राव के समय से ऑब्जर्वेशन रहा है कि मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री बनने के बाद भी कभी यह नहीं कहा कि उनके कारण आर्थिक सुधार और उदारवाद आया। वे कभी अहंकार में या अनजाने में भी यह नहीं बोले कि मैंने, या मेरे कारण भारत के उदारवादी निर्णय हुए। इसलिए क्योंकि वे पीवी नरसिंह राव की बुद्धिमत्ता, दूरदृष्टि और समझदारी के कायल थे। मेरा डॉ. मनमोहन सिंह से कभी नाता नहीं रहा लेकिन मैं पीवी नरसिंह राव, प्रधानमंत्री दफ्तर संभालने वाले भुवनेश चतुर्वेदी, पीवीआरके प्रसाद और इनके घेरे को गहराई से जानता था इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण में सामने था कि कैसे राजनीतिक दबावों, कैबिनेट के भीतर की चुनौतियों और दस, जनपथ की चिंताओं के बीच प्रधानमंत्री के कवच से डा. मनमोहन सिंह ने पहला साहसी बजट पेश किया। कैसे खुद प्रधानमंत्री ने स्वंय उद्योग मंत्रालय संभालते हुए लाइसेंस, परमिट राज को खत्म करने की घोषणाएं कीं!

वह मौनी बाबा की मौन क्रांति थी। तभी स्वतंत्र भारत के इतिहास का सत्य है कि बुद्धि, विवेक और समझदारी के प्रतिमान पीवी नरसिंह राव ने उबलते पंजाब, बागी कश्मीर तथा अराजक उत्तर-पूर्व को सामान्य बनाया तो बाबरी मस्जिद के ध्वंस को भी विवेक से सहा। दिलचस्प संयोग है कि पीवी नरसिंह राव ने पांच साल के आखिर में तथा मनमोहन सिंह ने दस साल शासन के आखिर में, दोनों ने एक जैसे बवंडरों का सामना किया। बावजूद इसके इतिहास दोनों के प्रति दयालु है। दुनिया में यदि भारत के वित्तीय, आर्थिक, सामरिक तथा कूटनीतिक प्रतिमानों में किसी को याद किया जाता है तो उनमें भारतीय नाम पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह के हैं। अद्भुत है! स्मृति पर जोर डालें। याद करें पीवी नरसिंह राव, के खिलाफ अर्जुन सिंह, फोतेदार, नटवर सिंह, नारायण दत्त तिवारी सहित कांग्रेस के तमाम दरबारियों, वामपंथी-सेकुलर आलोचकों से लेकर हर्षद मेहता, जेठमलानी, अचार कारोबारी लक्खू भाई और विश्वासघाती सीताराम केसरी जैसे चेहरों के बनाए झूठे बवंडर को। सभी को इतिहास मिट्टी की धूल सा मिटा चुका है। और इतिहास में कीर्ति अंकित है तो वह नरसिंह राव की है। ऐसे ही याद करें, मनमोहन सिंह के खिलाफ बवंडर पैदा करने वाले विनोद राय, प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, अन्ना हजारे, रामदेव, अरविंद केजरीवाल, नरेंद्र मोदी एंड पार्टी को! क्या इनमें से कोई एक भी सच्चा साबित हुआ? जो लोग नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल को भगवान, अवतार, मसीहा मानते हैं, उन्हें और उनकी भावना को दरकिनार करके सोचें तो मनमोहन सिंह ने मनुष्य रूप में दस वर्ष भारत का जो शासन किया वह किस कसौटी पर बुरा था? क्या वे भ्रष्ट प्रमाणित हैं? क्या पूंजीवाद और उदारवाद के आस्थावान डॉ. मनमोहन सिंह पर ये आरोप हैं कि उनकी बदौलत गौतम अडानी जैसे किसी क्रोनी पूंजीपति ने भारत को चूना लगाया। दुनिया में भारत को बदनाम बनाया?

ये बातें देश की एकता-अखंडता, इतिहास के मायनों में क्षणिक और बेमानी हैं। इसलिए अहम बात भारत के आखिरी बुद्धिवान, उम्दा प्रधानमंत्री’ का शीर्षक है। क्यों कर ऐसा माना जाए? जवाब पर यह विचार करें कि नरेंद्र मोदी का अब तक का शासन वतर्मान और भविष्य का क्या रास्ता बनाए हुए है? जाहिर है नेहरू के आइडिया ऑफ इंडिया, नेहरू-गांधी परिवार के खूंटे के आइडिया से अलग एक भारत। अर्थात उस हिंदू आइडिया ऑफ इंडिया का भारत, जिसका खूंटा संघ परिवार है। मान सकते हैं समकालीन भारत दो खूंटों की नियति लिए हुए है। स्वतंत्रता के बाद कोई साठ साल भारत गांधी-नेहरू परिवार के खूंटे से चला। अब समय संघ परिवार के खूंटे का है। और नरेंद्र मोदी के अवतार से हिंदू क्योंकि कथित तौर पर जागे हैं और वे देश और अपनी सुरक्षा में मुसलमान को चिन्हित किए हुए हैं तो जाहिर है उनकी प्राथमिक आवश्यकता क्या है? छप्पन इंची छाती का निरंतर नेतृत्व। इसलिए नरेंद्र मोदी की विरासत में आगे की राजनीति के चेहरों में अमित शाह हों या योगी आदित्यनाथ या हिमंता बिस्वा या देवेंद्र फडऩवीस, छप्पन इंची छाती के नेतृत्व, राजनीति और व्यवस्था की आवश्यकता स्थायी है। दूसरे शब्दों में भारत का गवर्नेंस शक्ति, वाक् शक्ति, भय बिन होय न प्रीत के लाठी दर्शन से ही चलेगा। शत्रु क्योंकि इतिहास और मुसलमान है तो पानीपत की लड़ाई का सिनेरियो भी तय है।  तभी नरेंद्र मोदी, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ आदि का भारत जब भविष्य में हर जिले में एक हिंदुस्तान और एक पाकिस्तान लिए हुए होगा तो कल्पना संभव भी है कि दिल्ली के तख्त को कभी बुद्धिमत्तापूर्ण, विवेकी, समझदार, सौम्य शख्सियत के बैठने का गौरव प्राप्त हो?

और हां, यह भी जान लेना चाहिए कि संघ के खूंटे के समानांतर अब जो गांधी-नेहरू-सेकुलर खूंटा है वह खरबूजे को देख खरबूजे जैसी राजनीति करते हुए है। इसलिए सार्वजनिक जीवन और राजनीति में बुद्धि, विचार, बहस, विवेक, सौम्यता, भद्रता, अच्छापन, पढ़ाई-लिखाई आदि का अर्थ ही नहीं है। भारत अब वह बीहड़ है जिसमें मनमोहन सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, पीवी नरसिंह राव जैसी शख्सियतों की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए फिर नोट करें डॉ. मनमोहन सिंह: भारत के आखिरी बुद्धिमान और उम्दा प्रधानमंत्री थे!

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Ghanshyam Chandra Joshi

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