देहरादून की शांत बादियॉ भी अब शांत कहॉ ?
धरा-पुकारती, देहरादून। आज मनुष्य कई तरह की बीमारियों से ग्रस्त है। किसी को नाक की बीमारी होती है तो किसी को कान की, किसी को गले की बीमारी तो किसी को पेट की। इनमें से ज्यादातर बीमारियों को हम स्वयं ही निमंत्रण देते हैं। वायु को प्रदूषित करेंगे तो उससे भी हम स्वयं ही बीमार हो जायेंगे। शहर में कचरा फैलायेंगे तो मच्छर आदि के जमा होने से हमें ही नुकसान है। आधुनिकता की दौड़ में, एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में मनुष्य यह भी भूल जाता है कि उसके द्वारा जोड़ी जा रही भौतिक वस्तुयें ही उसके लिये बड़ी मुसीबत का कारण भी बन सकती हैं। शहर में वाहनों, प्रेशर हॉर्न, लाउडस्पीकर व अन्य प्रकार का कान फोड़ देने वाला शोर यदि इसी गति से बढ़ता गया तो आने वाले समय में शहर बहरा भी हो सकता है। लोगों को सुनने में काफी दिक्कतों को सामना करना पड़ सकता है। पर्यावरण प्रदूषण बोर्ड भी मानता है कि शहर के लगभग हर हिस्से में उनके द्वारा तय मानक से करीब दस से पन्द्रह प्रतिशत शोर अधिक है। चिकित्सकों की मानें तो लगातार क्षमता से अधिक शोर सहन करने के बाद व्यक्ति स्थायी बहरेपन का शिकार हो जाता है। हद तो यह है कि राज्य के सबसे बड़ा सरकारी दून व पंडि़त दीनदयाल उपाध्याय जैसे साइलेंट जोन अस्पताल में भी मरीजों को ध्वनि प्रदूषण से परेशानी का सामना करना पड़ता है। राज्य बनने के बाद से शहर की स्थिति में तेजी से बदलाव आया। कभी शांत शहर के नाम से जाने जाना वाला देहरादून वाहनों और फैक्ट्रियों की बढ़ती संख्या से दबता चला गया। वाहनों और फैक्ट्रियों के शोर ने यहॉ रहने वाले लोगों का चैन मानो छीन ही लिया । डॉक्टरों के अनुसार एक व्यक्ति में सामान्य तौर पर षोर बर्दाश्त करने की क्षमता 40 डेसीबल से 60 डेसीबल तक होती है। ऐसी स्थिति में गौर करें तो कामर्सियल व इंडस्ट्रीयल एरिया में शोर मानक से कहीं अधिक हो रहा है। इसके अलावा शादियों में, पार्टियों में, सड़कों में नेताओं के भाषण हों या फिर रैलियों का शोर भी अत्यधिक खतरनाक साबित हो रहा है। रैली निकालने वाले यह नहीं सोचते कि जहॉ से होकर हम जा रहे हैं वहॉ हो सकता है कोई अस्पताल हो और उसमें मरीज उसका अपना भी हो सकता है, तो उस मरीज को कितनी परेशानी होगी। इसलिये हमें ऐसा कार्य करना चाहिये जिससे कि दूसरे को भी परेशनी न हो और अपना काम भी हो जाय।