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माता-पिता की सेवा और सम्मान से बढ़कर कोई और धर्म नहीं

  • इस संसार में माता-पिता सबसे पवित्र व पुज्यनीय शब्द-युग्म है।
  • माता-पिता की छाया तले ही जीवन सँवरता-संभलता है।
  • आसमान के समान विशाल मन, ममता, अपनत्व, सागर सम अंतःकरण आदि अनेकों गुणों की संगम है जीवनदायनी माँ।
  • माता-पिता की सेवा और उनकी आज्ञा पालन से बढ़कर कोई धर्म नहीं है।

हमारे जीवन को इस स्तर तक पहुँचाने में सिर्फ और सिर्फ माता-पिता का ही हाथ व आशीर्वाद होता है। माता-पिता की छाया तले ही जीवन सँवरता-संभलता हुआ इस शिखर तक पहुँचता है। हमें जीवन जीने की कला भी माता-पिता ही सिखाते हैं वह भी निःस्वार्थ भाव से। यह भी सत्य है कि जीवन में हर किसी व्यक्ति को एक ऐसे साथी या मित्र की आवश्यकता होती है जो हमेशा उसके साथ रहे, उससे अटूट प्यार करें और जीवन भर उसकी मदद करें, परंतु जीवन में यह बात भी एकदम सत्य है कि किसी भी स्नेह की तुलना में माता पिता का प्यार सर्वोपरि होता है। एक पिता के सहज और निर्मल प्यार व आशीर्वाद को किसी भी अन्य व्यक्ति के प्रेम से नहीं तोला जा सकता है। जरा याद करो वह दिन कैसा होगा जब माता पिता, अपने बच्चों की जरूरतों को पूरा करने के लिए अपना पूरा जीवन संघर्ष के साथ जीते हैं और बृद्धावस्था में जब वह अपने आप में असहाय सा महसूस करने लगते हैं और वही बेटा ऐसे वक्त में उनसे मुँह मोड़ ले। इस संसार में माता-पिता सबसे पवित्र व पुज्यनीय शब्द-युग्म है। जो पुत्र पिता के संघर्ष व माँ के विशाल मन को, अपने स्वार्थ के कारण नहीं समझ पाता, वह संस्कारविहीन माना जाता है और भारतीय संस्कृति में ऐसा व्यक्ति कुपुत्र कहलाता है। माता – पिता, देवी व देवता के सक्षात स्वरुप हैं। हम रात-दिन मंदिर में जाकर भगवान को नमन करें, घर में भगवान की फोटो व मूर्ति के सम्मुख सिर झुकायें, लाख मिन्नतें करते रहें या समाजसेवी होने का लाख ढोंग रचें, लेकिन परम पिता परमात्मा का सुख व आशीर्वाद भी उसी व्यक्ति को मिलता है जो निःस्वार्थभाव से बृद्धावस्था में  अपने माता – पिता का सहारा बनता है। ऐसे सुन्दर महल व आलीशान बंगले भी किस काम के, जिनकी चमक बृद्धों के बिना फीकी हो और लानत है ऐसे इंसानों पर जो अपने माँ बाप को ही बोझ समझ बैठते हैं। आओ जरा कल्पना करते हैं अपने उस भविष्य की, जब हम जीर्ण – क्षीर्ण तन लिए, बृद्धावस्था की जर्जर दहलीज पर पग रखेंगे और हमारा अपना ही खून पहचानने से मुकर जाये, जिनके खातिर अपने खून का पसीना कर हमने दारुण अवस्था को सहर्ष इसलिए स्वीकार किया कि मेरी आने वाली पीढ़ी इसका प्रतिफल भोग सकें। धन – दौलत, एसो – आराम, घर – बंगले सब यही के यही रह जाते हैं, केवल अपने संस्कार व मातृ-पितृ-सेवा का आशीर्वाद ही अपने साथ जाते हैं और हमारी आने वाली पीढ़ी भी इसी का प्रतिफल भोगती हैं।
कालचक्र निश्चित वेग से निरन्तर घूमता रहता है लेकिन माता-पिता का संबंध जन्म-जन्मान्तर अटल व अभंग है। संतान के लिए उनके ऋण को कभी पूरा कर पाना सम्भव नहीं है। अतः संतान को अपने माँ बाप की मनोभाव से सेवा करनी चाहिए। आज आधुनिकता की अंधी दौड़ ने सभी रिश्ते नाते बौने कर दिए हैं। संतान को खुद अपने ही माता-पिता बोझ लगने लगे हैं। कुछ लोगों का लक्ष्य केवल धन अर्जित करने तक सीमित रहने लगा है। यहाँ तक कि कुछ लोग बृद्ध माता पिता को साथ रखना तक इसीलिए बोझ समझ बैठते हैं।
आसमान के समान विशाल मन, ममता, अपनत्व, सागर सम अंतःकरण आदि अनेकों गुणों की संगम है जीवनदायनी माँ। माँ के मन की विशालता, अंतःकरण की करुणा को कभी भी मापा नहीं जा सकता है। कुपुत्र अनेक पैदा हो सकते हैं, पर माता कभी कुमाता नहीं हो सकती है। जिसने इस वाक्य की सार्थकता को समझ लिया उसका जीवन सार्थक हो जाता है। यदि कोई संतान जन्म से अपंग हो जाती है तो माता – पिता उसका लालन पालन भी बिना भेदभाव किये समान ममता के साथ करते हैं, तो हमें अपने अंतर्मन से सोचना होगा कि बृद्धावस्था में माता – पिता को बोझ समझना कितना उचित है ?  इसका प्रतिफल क्या होगा ? यह भी हमें दिल की गहराई से सोचना चाहिए। एक आदर्श मनुष्य का दायरा केवल अपने तक सीमित रहना नहीं वरन समाज व रिश्ते नातों की अहमियत को जानना है, जिनके प्रति हमारे भी कर्तव्य निश्चित है। अब इन्हें मानना व न मानना हमारे संस्कारों पर आधारित हैं और निश्चित रूप से यही से हमारे भविष्य एवं हमारी आने वाली पीढ़ी के भविष्य का पथ भी गुजरता है।
एक जमाना वह भी था, जब श्रवण कुमार ने अपने अंधे माता-पिता की सेवा में अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे। लेकिन आज कुछ ऐसे भी आधुनिक श्रवण कुमार हैं जो आधुनिकता की अंधी दौड़, अत्यधिक धन एवं एसो-आराम की अपवित्र लालसा के आगे वृद्ध व असहाय माता-पिता को जीवन के अंतिम पलों में भी अकेले रहने को विवश करने में तनिक भी हिचकिचाते नहीं तथा साथ रखने में शर्म महसूस करने लगते हैं। माता-पिता की सेवा और उनकी आज्ञा पालन व सम्मान से बढ़कर कोई धर्म नहीं है।

सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता ।
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत ।।

माता ही सभी तीर्थों की स्वरुप है और पिता देवताओं का स्वरुप हैं। इसलिए सभी को यत्नपूर्वक माता पिता का पूजन करना चाहिए।

घनश्याम चन्द्र जोशी
सम्पादक

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Ghanshyam Chandra Joshi

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