अनुपम भारतीय संस्कृति व सभ्यता का होता है पूरे विश्व में बखान
विलुप्त होती हमारी धरोहरों का संजोकर रखने की आवश्यकता
आकाश ज्ञान वाटिका। हमारी मातृभूमि, भारत देश की संस्कृति व सभ्यता का पूरे विश्व में बखान किया जाता है और साथ ही अनुसरण भी किया जाता है। लेकिन हमारे देश में ही हम सबके बीच में से हमारी धरोहरें विलुप्त होती जा रही हैं, साथ ही साथ हमारी सभ्यता व संस्कृति भी विलुप्त हो रही है। पाश्चात्य संस्कृति अपनी जड़ें मजबूत बना रही हैं। इन सबके बावजूद आज भी हमारे देश में साधु-संतों व कुछ पुराने लोगों के कारण हमारी संस्कृति कुछ हद तक बची हुई है। भारत देश में ही एक राज्य उत्तराखण्ड भी है, जिसे देवभूमि के नाम से जाना जाता है। यहाँ की संस्कृति, कला एवं सभ्यता सम्पूर्ण विश्व में अनुपम है। हमारी संस्कृति का जुड़ाव हमेशा हमारी धरोहरों व पौराणिक विरासतों से रहा है। उत्तराखण्ड के गाँवों में पहले लोग, आज की तरह अपने जीवन की उपयोगी वस्तुओं के लिये दूसरे पर निर्भर नहीं रहते थे। अपनी आवश्यकता की वस्तुओं को प्राप्त करने की व्यवस्था वह स्वतः ही कर लिया करते थे। इसका एक जीता-जागता उदाहरण है – हमारे नौला, धारे, पनचक्की एवं हमारे घरों में बने छज्जे इत्यादि।
ग्रामीणों को अपने गाँव के आस-पास जहाँ पर भी पानी का स्त्रोत उपलब्ध होता था, वहीं पर वह एक सीढ़ीनुमा आकृति बना लेते थे, जिसे नौला कहते हैं, इसमें श्रोत का पानी इकट्ठा होता रहता था तथा गाँव वाले इसी पानी को मटकों, बाल्टियों में भरकर ले जाते थे। यह स्वनिर्मित पेयजल योजना शुद्ध पानी तो उपलब्ध कराती ही है, इसके साथ-साथ ही हमारी संस्कृति के साथ भी इनका काफी जुड़ाव रहता है। हमारे कई पवित्र पर्वों पर नौलों व धारों का विशेष स्थान रहता है। समस्त पर्वतीय गाॅवों में शादी के अवसर पर नौला-पूजन की प्रथा है। इस परम्परा के अनुसार शादी के बाद दुल्हन जब अपने ससुराल में आती है तो वह सबसे पहला कार्य नौला-पूजन का करती है। वह ससुराल पहुॅचते ही द्वार-पूजा के उपरान्त नौला जाती है। कुछ महिलायें व बालिकायें भी उसके साथ जाती है। दुल्हन नौला-पूजन करने के बाद वहाॅ से घर के लिये साफ जल भरकर लाती है। आज भी उत्तराखण्ड के लगभग समस्त गाॅवों में यह परम्परा चली आ रही है। खासकर सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा की बात करें तो वहाॅ आज भी यह प्रथा उतनी ही उल्लास व उमंग के साथ मनाई जाती है, जितनी प्रारम्भ में थी। यद्यपि विकास की दौड़ के आगे अब इन धरोहरों का अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है, लेकिन पाइप लाइनों से पर्याप्त पानी की व्यवस्था के पश्चात् भी आज ग्रामीण इन नौलों को सुरक्षित रखने के लिये प्रयासरत हैं। नौलों का संबंध सीधे भूजल से ही होता है। नौलों की सीढ़ीनुमा बनावट देखने में काफी सुन्दर होती है, जो मंदिर के समान दिखाई देती है। इसीलिये इन्हें जल-मन्दिर भी कहा जाता है। आज वैसे तो समस्त पहाड़ी क्षेत्रों में भी पानी की पाइप लाइनों के माध्यम से संपूर्ण जल व्यवस्था की जा रही है, लेकिन बारिश के मौसम में यह पाइप लाइनों में मिट्टी भर जाती है, जिससे काफी समस्या होती है। कई क्षेत्रों में पानी उपलब्ध नहीं हो पाता है, तो ग्रामीण को उस समय नौलों व पुराने स्त्रोतों का ही ध्यान आता है। जब मुश्किल समय में हमारे यह पुराने धरोहर ही हमारे काम आते हैं, तो हमें भी चाहिये कि हम भी अपने धरोहरों का संभालने व संवारने का पूरा प्रयास करें।
पहाड़ों में अब पनचक्की भी बहुत कम हो गई हैं। इसके अलावा हमारे घरों से जो सभ्यता बच्चों को दी जाती थी, वह भी धीरे-धीरे कम होती जा रही है, बच्चों को जो सांस्कृतिक शिक्षायें दी जाती थी, वह भी विलुप्त होती नजर आ रही हैं। किसी भी देश की उन्नति में उसकी संस्कृति, सभ्यता, मूल्य, परम्पराओं और सहेजी गई धरोहरों का बहुत महत्व होता है। मगर विडम्बना यह है कि हमारी प्राचीन लोककलायें आज मात्र राष्ट्रीय पर्वों पर झांकी-प्रदर्शनी या विषेश महोत्सवों में प्रदर्शित होने तक सीमित रह गई हैं। विश्व पटल पर भारत खासकर अपनी पुरातन लोकसंस्कृति के लिये जाना-पहचाना जाता है। हमारे लोक-नृत्य, लोक-नाट्य, लोक-संगीत, लोक-कलायें, लोक-परम्परायें हमारी अनमोल धरोहर हैं। भारतीय लोक-नृत्यों में होने वाला जन-जीवन का स्वाभाविक चित्रण किसी को भी विस्मित कर सकता है। हमारी लोक-कलायें अपने में एक इतिहास समाहित किये हुये हैं। यही कारण है कि केवल शास्त्रीय नृत्य ही नहीं, लोक-नृत्यों को भी सीखने के लिये विदेशी स्त्री-पुरुश लालायित रहते हें। लेकिन हमारे देश के लोग ही इससे दूर होते जा रहे हैं। आज हम सबके बीच से लोक-वाद्य-यंत्रों पर बजती संगीत स्वर लहरियों की मधुरता आज के रीमिक्स संगीत के बीच लुप्त होने के कगार पर है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी आज शादी-पर्वों में सिनेमाई संस्कृति हावी होती जा रही है। अब तो लोक-गीतों की धुनों में भी फिल्मी संगीत का असर दिखाई दे रहा है। हमारे देश की लोक-कलायें आज उचित संरक्षण न मिल पाने के कारण अपनी अंतिम साँसें गिन रही हैं। आज अनेक लोक-कलायें विलुप्त होने के कगार पर हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में हाथ से बनने वाले डलवे, मौनी, पिटारी आदि जो मूंज, सेठा, और सिरकी को रंगकर सुंदर कलाकृतियाॅ उकेरते हुये बनाये जाते हैं, अब वह सब धीरे-धीरे कम दिखाई देते हैं। बांस की सिरकी के बने ‘बेना’ का स्थान अब प्लास्टिक और फोल्डिंग पंखों ने ले लिया है। मिट्टी से बनने वाले घडे, खिलौने अब बहुत कम प्रयोग में आते हैं, इनका स्थान अब प्लास्टिक की बनी चीजों ने ले लिया है। आज समय के साथ-साथ कितनी संस्कृतियाॅ विलुप्त होती जा रही हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति अभी भी विश्व पटल पर अपनी चमक छोड़ रही है। लेकिन यह बात भी हम नहीं भूल सकते कि हमारे देश की संस्कृति में समय के साथ-साथ बहुत परिवर्तन हो गया है, जो हमारे धरोहरों के लिये खतरा है। यदि हम इसी तरह से पाश्चात्य संस्कृति को अपनाते रहेंगे तो हमारे धरोहर विलुप्त होते जायेंगे और धीरे-धीरे एक दिन हमारी संस्कृति को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। जिस संस्कृति का समस्त विश्व अनुसरण करता है, उसे बचाने के लिये हमें पूर्ण रूप से प्रयास करना चाहिये, ताकि हमारी धरोहरे विलुप्त होने की कगार पर न जायें और समस्त विश्व में हमारी धरोहरों का सम्मान हमेशा होता रहे।
जय हिन्द । जय उत्तराखण्ड ।
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