सावन माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी, “नाग-पंचमी” को की जाती है नाग देवता की पूजा
आकाश ज्ञान वाटिका, शनिवार, 25 जुलाई, 2020, देहरादून।
हिन्दू पंचांग के अनुसार सावन माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी को नाग-पंचमी के रूप में मनाया जाता है। इस दिन नाग देवता या सर्प की पूजा की जाती है और उन्हें दूध से स्नान कराया जाता है। इस दिन नागों का दर्शन शुभ माना जाता है।
नाग देवता की पूजा का मंत्र : “ऊँ कुरुकुल्ये हुं फट स्वाहा”
- नाग पंचमी के दिन सुबह-सुबह स्नान करने के बाद घर के दरवाजे पर पूजा के स्थान पर गाय के गोबर से नाग बनायें।
- व्रत का शुद्ध मन से नाग देवता का आह्वान करें और जल, पुष्प और चंदन का अर्घ्य दें। नाग देव की पूजा सुगंधित पुष्प और चंदन से करें।
- नाग प्रतिमा को दूध, दही, घी, शहद और चीनी का पंचामृत बनाकर स्नान करायें तथा तत्पश्चात प्रतिमा पर चंदन युक्त जल चढ़ायें।
- लड्डू, मिठाई, पुए का भोग लगायें। इसके बाद सौभाग्य सूत्र, कुमकुम, सिंदूर, बेलपत्र, चंदन, हरिद्रा, चूर्ण, आभूषण, पुष्प माला, धूप-दीप, ऋतु फल और पान के पत्ते चढ़ायें। अब नाग देवता की आरती करें।
- दिनभर व्रत करने के उपरांत शाम के समय पुनः नाग देवता की प्रतिमा की पूजा कर व्रत का समापन करें।
[box type=”shadow” ]अग्नि पुराण में 80 प्रकार के नाग कुलों का वर्णन है। अनादिकाल से ही नागों का अस्तित्व देवी-देवताओं के साथ वर्णित है। विशेष रूप से जिन आठ नागों के नाम से नाग-पंचमी की पूजा की जाती है, वह शेषनाग, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक एवं पद्म, महापद्म, कुलिक एवं शंख हैं। ये सभी आठ नाग कश्यप ऋषि की पत्नी कद्रू से उत्पन्न हुए थे।
- शेषनाग के बारे में कहा जाता है कि इन्हीं के फन पर धरती टिकी हुई है। यह पाताल लोक में ही रहते हैं। शेषनाग भगवान विष्णु के सेवक हैं। मान्यता है कि शेषनाग के हजार मस्तक हैं। इनका कही अंत नहीं है इसीलिए इन्हें ‘अनंत’ भी कहा गया है। शेष को ही अनंत कहा जाता है। शेषनाग कश्यप ऋषि की पत्नी कद्रू के बेटों में सबसे पराक्रमी और प्रथम नागराज थे।
- आठ प्रमुख नागों में से एक कद्रू के पुत्र तक्षक भी पाताल में निवास करते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार तक्षक नाम की एक जाति थी, जिसका जातीय चिन्ह सर्प था। उनका राजा परीक्षित के साथ भयंकर युद्ध हुआ था। जिसमें परीक्षित मारे गए थे। तब उनके पुत्र जनमेजय ने तक्षकों के साथ युद्ध कर उन्हें परास्त कर दिया था।
- शेषनाग के भाई वासुकि को भगवान शिव के सेवक मन जाता है। नागों के दूसरे राजा वासुकि का इलाका कैलाश पर्वत के आसपास का क्षेत्र था। पुराणों अनुसार वासुकि नाग अत्यंत ही विशाल और लंबे शरीर वाले माने जाते हैं। समुद्र मंथन के दौरान देव और दानवों ने मंदराचल पर्वत को मथनी तथा वासुकी को ही रस्सी बनाया था। त्रिपुरदाह के समय वह शिव के धनुष की डोर बने थे।
- पद्म नागों का गोमती नदी के पास के नेमिश नामक क्षेत्र पर शासन था। बाद में ये मणिपुर में बस गए थे। असम के नागावंशी इन्हीं के वंश से हैं।
- विष्णुपुराण में सर्प के विभिन्न कुलों में महापद्म का नाम भी आता है। पद्म और महापद्म नाग कुल में विशेष प्रीति थी।
- कर्कोटक नाग कुल का इलाका पंजाब की इरावती नदी के आसपास का माना जाता है। कर्कोटक शिव के एक गण और नागों के राजा थे। ‘कर्कोट’ पुराणों में वर्णित एक प्रसिद्ध नाग का नाम है। हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार कर्कोटक नागों का एक राजा था जिसने इन्द्र के अनुरोध पर नल को काटा था। इस दंश के फलस्वरूप नल ऐंठनयुक्त तथा कुरूप हो गये। कर्कोटक ने नारद को धोखा दिया था जिससे क्रोधित होकर नारद ने उसे शाप दिया जिससे वह एक कदम भी नहीं चल पाता था।
- शंख नाग नागों के आठ मुख्य कुलों में से एक है। शंख नागों पर धारियां होती हैं। यह जाति अन्य नाग जातियों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान मानी जाती थी।
- कुलिक नाग जाति नागों में ब्राह्मण कुल की मानी जाती है जिसमें अनंत भी आते हैं। ये अन्य नागों की भांति कश्यप ऋषि के पुत्र थे लेकिन इनका संबंध सीधे ब्रह्माजी से भी माना जाता है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जनमेजय के नाग यज्ञ से भयभीत होकर, शेषनाग हिमालय पर, कम्बल नाग ब्रह्माजी के लोक में, शंखचूड़ मणिपुर राज्य में, कालिया नाग यमुना में, धृतराष्ट्र नाग प्रयाग में, एलापत्र ब्रह्मलोक में, कर्कोटक महाकाल वन में और अन्य नाग कुरुक्षेत्र में तप करने चले गए थे।[/box]
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*** सर्प सूक्त का पाठ ***
ब्रह्मलोकेषु ये सर्पा शेषनाग परोगमा:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।1।।
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: वासुकि प्रमुखाद्य:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।2।।
कद्रवेयश्च ये सर्पा: मातृभक्ति परायणा।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।3।।
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: तक्षका प्रमुखाद्य।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।4।।
सत्यलोकेषु ये सर्पा: वासुकिना च रक्षिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।5।।
मलये चैव ये सर्पा: कर्कोटक प्रमुखाद्य।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।6।।
पृथिव्यां चैव ये सर्पा: ये साकेत वासिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।7।।
सर्वग्रामेषु ये सर्पा: वसंतिषु संच्छिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।8।।
ग्रामे वा यदि वारण्ये ये सर्पप्रचरन्ति।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।9।।
समुद्रतीरे ये सर्पाये सर्पा जंलवासिन:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।10।।
रसातलेषु ये सर्पा: अनन्तादि महाबला:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।11।।[/box]
[box type=”shadow” ]नाग-पंचमी की पौराणिक कहानी – स्त्रियाँ सर्प को भाई मानकर उसकी पूजा करती हैं
नाग-पंचमी किओ मनाये जाने को लेकर अनेक लोक एवं पौराणिक कथायें प्रचलित हैं, जिसमें से एक कथा “सेठ की छोटी बहू एवं भाई सर्प” की काफी प्रचलित है।
“प्राचीन काल में एक सेठजी के सात पुत्र थे। सातों के विवाह हो चुके थे। सबसे छोटे पुत्र की पत्नी श्रेष्ठ चरित्र की विदूषी और सुशील थी, परंतु उसके भाई नहीं था। एक दिन बड़ी बहू ने घर लीपने को पीली मिट्टी लाने के लिए सभी बहुओं को साथ चलने को कहा तो सभी डलिया और खुरपी लेकर गए और मिट्टी खोदने लगीं। उसी वक्त वहाँ एक सर्प निकला, जिसे बड़ी बहू खुरपी से मारने लगी। यह देखकर छोटी बहू ने उसे रोकते हुए कहा, ‘इसे मत मारो’, ‘यह बेचारा निरपराध है।’ यह सुनकर बड़ी बहू ने उसे नहीं मारा, तब सर्प एक ओर चले गया। तब छोटी बहू ने उस सर्प से कहा, ‘हम अभी लौट कर आते हैं तुम यहाँ से कहीं मत जाना। यह कहकर वह सबके साथ मिट्टी लेकर घर चली गई और वहाँ कामकाज में फँसकर सर्प से जो वादा किया था उसे भूल गई।
दूसरे दिन उसे वह बात याद आई तो सब को साथ लेकर वहाँ पहुँची और सर्प को उस स्थान पर बैठा देखकर बोली, सर्प भैया कैसे हैं, प्रणाम। सर्प ने कहा, ‘तुम भैया कह चुकी हो, इसलिए तुम्हें छोड़ देता हूँ, नहीं तो झूठी बात कहने के कारण मैं तुम्हें अभी डस लेता। वह बोली, भैया मुझसे भूल हो गई, मैं उसके लिए क्षमा माँगती हूँ, तब सर्प बोला, अच्छा, आज से तुम मेरी बहिन हुई और मैं तेरा भाई। तुम्हें जो माँगना हो, अभी माँग सकती हो। वह बोली, ‘भैया, मेरा कोई नहीं है, अच्छा हुआ जो आप मेरे भाई बन गए ।
कुछ दिन व्यतीत होने पर वह सर्प मनुष्य का रूप रखकर उसके घर आया और बोला कि मेरी बहिन को भेज दो। यह सुनकर सबने आश्चर्य से कहा, ‘इसके तो कोई भाई था ही नहीं। इस बात को सुनकर वह सर्प बोला, मैं इसके दूर के रिश्ते में इसका भाई लगता हूँ, बचपन में ही बाहर चला गया था। उसके विश्वास दिलाने पर घर के लोगों ने छोटी को उसके साथ भेज दिया। उसने मार्ग में बताया कि ‘मैं वहीं सर्प हूँ, इसलिए तुम डरना नहीं और जहाँ चलने में कठिनाई हो वहाँ मेरी पूछ पकड़ लेना। उसने सर्प के कहे अनुसार ही किया और अंततः वह अपने भाई सर्प के घर पहुँच गई। भाई सर्प के घर के धन-दौलत को देखकर वह आश्चर्य चकित हो उठी।
एक दिन सर्प की माता ने उससे कहा, ‘मैं एक काम से बाहर जा रही हूँ, तुम अपने भाई को ठंडा दूध पिला देना। उसे यह बात ध्यान न रही और उससे उसे गर्म दूध पिला दिया, जिसमें सर्प मुख बाहर ज्यादा जल गया। जब सर्प की माता ने वापस आकर यह देखा तो उसे बहुत ज्यादा गुस्सा आ गया लेकिन सर्प के समझाने पर वह शांत हो गई। इस पर अब सर्प ने सोचा कि बहिन को अब उसके घर भेज देना चाहिए। तब सर्प और उसके पिता ने उसे अत्यधिक मात्रा में सोना, चाँदी, हीरे-जवाहरात, वस्त्र-भूषण आदि भेंटकर उसके घर वापस पहुँचा दिया।
घर पहुँचते ही जब बड़ी बहु ने इतना सारी धन दौलत देखि तो उसे ईर्षा होने लगी और उससे कहने लगी, ‘तेरा भाई तो अत्यधिक धनवान है तुम्हें तो उससे और भी ज्यादा मात्रा में धन लाना चाहिए था। जब सर्प को यह बात मालूम पड़ी तो उसे घर में उपयोग होने वाली सारी वस्तुएँ सोने की लाकर दे दीं। यह देखकर बड़ी बहू ने कहा, ‘इन सब वस्तुओं को साफ करने के लिए झाड़ू भी सोने का ही होन चाहिए था’। यह सुनकर सर्प ने झाड़ू भी सोने का ही लेकर दे दिया।
सर्प ने छोटी बहू को हीरा और मोतियों से बना एक अद्भुत हार भी दिया था जिसकी प्रशंसा उस देश की महारानी ने भी सुनी और वह राजा से बोली कि सेठ की छोटी बहू का हार मुझे चाहिए और उसे यहाँ लाया जाये।’ उसी समय राजा ने अपने मंत्री को बुलाया और आदेश दिया कि वह उस हार अति शीघ्र लेकर आयें। मंत्री सेठजी के पास गए और कहा कि ‘महारानी आपकी छोटी बहू का हार पहनना चाहती हैं और यह मुझे दे दिया जाये जिससे कि मैं इसे महारानी को दे सकूँ। सेठ दर गए और उन्होंने वह हार अपनी बहु से लेकर उस मंत्री को दे दिया। सेठजी की छोटी बहू को यह बात बहुत बुरी लगी, उसने अपने भाई सर्प
को याद किया और आने पर प्रार्थना की। सर्प जब अपनी बहिन से मिला तो उसे अपनी साडी बात सर्प भाई को बताई और कहा कि महारानी ने आपका दिया हुआ वह अद्भुत हार मेरे से छीन लिया है। बहिन ने अपने सर्प के कहा कि तुम कुछ ऐसा उपाय करो कि जब तक वह हार महारानी के गले में रहे, तब तक लिए वह सर्प बन जाए और जब वह उसे मुझे लौटा दे, तब पहले की तरह हीरों और मणियों का बन जाये। सर्प ने अपनी बहिन के कहे अनुसार एकदम वैसा ही किया। अब जैसे ही मंत्री ने महारानी को हार दिया और वह उसे पहनने लगी वैसे ही वह हीरों और मणियों का हर सर्प बन गया। इस अद्भुत नज़ारे को देखकर महारानी जोर जोर से चीखने और रोने लगी। यह देखते ही राजा ने सेठ के पास सन्देश भेजा कि अपनी छोटी बहू को तुरंत मेरे पास भेजो। सेठजी डर गए और सोचने लगे कि राजा न जाने क्या कर डालेगा। वह खुद अपनी छोटी बहू को साथ लेकर राजा के सामने उपस्थित हुए। राजा ने छोटी बहू से पूछा, तुमने इस हार पर क्या जादू किया है, मैं तुझे इसका कठोर दण्ड देता हूँ। इस पर छोटी बहू ने राजा से कहा हे राजन, कृपया क्षमा कीजिए, मैंने कोई जादू नहीं किया है। यह हार ही अद्भुत है और मेरे गले में हीरों और मणियों का बना रहता है और दूसरों के गले में डालते ही सर्प बन जाता है। यह सुनते ही राजा ने वह सर्प बना हार उसे देते हुए कहा, इसे अभी गले में पहन कर दिखाओ। छोटी बहू ने जैसे ही उस हार को अपने गले में धारण किया वह हार पहले की तरह हीरों और मणियों का अति सुन्दर हर बन गया।
यह नजार देख राजा आश्चर्य चकित हो गया और उसे सेठ की छोटी बहू की बात पर विश्वास हो गया और उसने प्रसन्न होकर उसे बहुत सी मुद्रायें भी पुरस्कार में दीं। छोटी बहू अपनी हार और इन मुद्राओं को लेकर घर लौट आई। छोटी बहू के धन को देखकर बड़ी बहू ने ईर्षा के कारण उसके पति को सिखाया कि छोटी बहू के पास कहीं से धन आता है। इस पर उसके पति ने अपनी पत्नी को बुलाकर कहा, ठीक-ठीक बता कि यह धन तुझे देता कौन है ? तब वह पुनः सर्प को याद करने लगी। उसी समय सर्प ने प्रकट होकर कहा, यदि कोई मेरी धर्म बहिन के आचरण पर संदेह प्रकट करेगा तो मैं उसे खा लूँगा। यह सुनकर छोटी बहू का पति बहुत प्रसन्न हुआ और उसने सर्प देवता का बड़ा सत्कार किया। उसी दिन से नागपंचमी का त्योहार मनाया जाता है और स्त्रियाँ सर्प को भाई मानकर उसकी पूजा करती हैं।”[/box]
[box type=”shadow” ]कालिया नाग पर श्रीकृष्ण की विजय का दिन – नाग-पंचमी
नाग पंचमी को लेकर एक लोक कथा यह भी है कि “भगवान श्रीकृष्ण के मामा कंस ने उन्हें मारने के लिए कालिया नामक एक नाग को भेजा था। एक दिन जब श्रीकृष्ण अपने दोस्तों के साथ नदी के किनारे खेल रहे थे तो एकाएक उनकी गेंद नदी में जा गिरी। जब वह उसे लाने के लिए नदी में उतरे तो कालिया नाग ने उन पर आक्रमण कर दिया था। लेकिन श्रीकृष्ण के सामने उस कालिया नाग की कुछ नहीं चली और वह अपनी हार मानकर भगवान श्रीकृष्ण से माफी माँगने लगे और वचन दिया कि अब वह कभी भी गाँव वालों को किसी भी तरह का कोई नुकसान नहीं पहुँचायेगा तथा वहाँ से सदैव के लिए चला जायेगा। इस तरह कालिया नाग पर श्रीकृष्ण की विजय का यह दिन नाग पंचमी के रूप में मनाया जाता है”।[/box]
भारत देश कृषि प्रधान देश है। सांप खेतों का रक्षण करता है, इसलिए उसे क्षेत्रपाल कहते हैं। जीव-जंतु, चूहे आदि जो फसल को नुकसान करने वाले तत्व हैं, उनका नाश करके सांप हमारे खेतों को हराभरा रखता है। साँप हमें कई मूक संदेश भी देता है। साँप के गुण देखने की हमारे पास गुणग्राही और शुभग्राही दृष्टि होनी चाहिए। भगवान दत्तात्रय की ऐसी शुभ दृष्टि थी। नाग पंचमी के शुभ अवसर पर हमें नागों के संरक्षण का संकल्प लेना चाहिए। आज कई जगहों सापों को आर्थिक लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से मार दिया जाता है।
साँप सामान्यतया किसी को अकारण नहीं काटता। उसे परेशान करने वाले को या छेड़ने वालों को ही वह डंसता है। साँप भी प्रभु का सर्जन है, वह यदि नुकसान किए बिना सरलता से जाता हो, या निरुपद्रवी बनकर जीता हो तो उसे मारने का हमें कोई अधिकार नहीं है।
चंपा के पौधे को लिपटकर वह रहता है या तो चंदन के वृक्ष पर वह निवास करता है। केवड़े के वन में भी वह फिरता रहता है। उसे सुगंध प्रिय लगती है, इसलिए भारतीय संस्कृति को वह प्रिय है।
आकाश ज्ञान वाटिका परिवार की ओर से समस्त सम्मानित जनों को श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी, नाग-पंचमी की हार्दिक शुभ कामनायें। सभी हमेशा सपरिवार सुखी, स्वस्थ्य एवं समृद्ध रहें, भगवान शिव के गले का हार और सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु की शैय्या के स्वरुप नाग देवता से यहीं प्रार्थना करते हैं।