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साधारण नहीं असाधारण था – ‘‘नारायण’’

लेखक : ऑनरी कैप्टेन श्याम काण्डपाल, कांटली, कौसानी, मोबाइल : 9289342948

वह साधारण था पर मुझे असाधारण लगता था : श्याम काण्डपाल

आकाश ज्ञान वाटिका, रविवार, 16 फ़रवरी 2025, कांटली/कौसानी। सुबह का समय, धूप धीरे-धीरे तेज हो रही थी, मन भटक रहा था, कभी भूत तो कभी भविष्य की तरफ ध्यान जा रहा था। काफी प्रयास के बाद भी वर्तमान मैं नहीं आ रहा था। भविष्य के गर्त में क्या है असमंजस की स्थित हमेशा बनी रहती है, पर भूतकाल की कितनी ही बातें याद आ रही हैं। मेरे जीवन में बहुत किरदार आए और बहुतों ने मुझे प्रभावित किया। किसी ने किसी वजह से हमेशा मेरे दिल में जगह बनाई। उनसे मेरा कोई रिस्ता था या नहीं, पर वे मेरे जिंदगी में आए और एक अमित छाप छोड़ गए। उन किरदारों की जब याद आती है तो मन सोचने को मजबूर होता है। ऐसा ही एक किरदार के बारे में आपको बताना चाहता हूँ। उसका नाम था ‘‘नारायण’’। हम उसे कैन्टीन के नाम से जानते थे। उसका नाम कैन्टीन कैसा पड़ा ? यह पता नहीं, परंतु आज चालीस साल के उपरान्त भी उसकी याद आती है तो मन सोचने लगता है।

नारायण एक साधारण परिवार मैं जन्मा व्यक्ति था। उसके पिताजी बहुत ताकतवर थे। कहते है एक धान की बोरी कंधे में रख कर नदी पार करते थे। हम कहते थे, ‘गुसदा हमें भी नदी पार करा दो।’ कैन्टीन हमारे साथ ही खेलता था और बात-बात में खिल-खिलाकर हँसता रहता था। धीरे-धीरे हम बड़े होने लगे, उसने स्कूल जाना बंद कर दिया। मैं कहता था कैन्टीन स्कूल क्यों नहीं आया तो वह हंस कर कहता था, ‘श्याम दा मास्टर जी बहुत मारते है।’ उन दिनों स्कूल मैं मार-कुटाई आम बात थी। कैन्टीन खेतों में काम करता था और जंगल में गाय-बैल का ग्वाला होता था। उसने बाँसुरी बजाना भी सीख लिया था। जंगल में मवेशियों के साथ रहता और बाँसुरी बजाता रहता था और गाँव वाले उसकी बाँसुरी की धुन सुनते रहते थे। मैं भी कन्टीन के साथ कभी-कभी जंगल जाता था।

वह कहता था, ‘श्याम दा बमोर (एक जंगली फल) खाएगा’। मैं कहता ना-ना (नहीं), पेट मैं पीड़ (दर्दं) हो जायेगा। वह खिल-खिलाकर हंस देता और फिर बाँसुरी बजाने लग जाता था। पूरा दिन कब निकल जाता, पता ही नहीं चलता था।
मैं गाँव के स्कूल से हाई स्कूल में पढ़ने लग गया था और भविष्य की तरफ बढ़ने लग गया था। कैन्टीन अपने जीवन मैं व्यस्त था। अब उसने बीन बाजा बजाना भी सीख लिया था। वह साधारण था पर मुझे असाधारण लगता था। धीर-धीरे उसने अपना इंदक खरीद लिया और खुद इंदक का मास्टर हो गया। एक ढोल और झाँझरी भी खरीद ली। बहुत ही सुंदर संयोजन (काॅम्बिनेषन) था। वह बारातों में इंदक किराये पर देता था और जब भी लग्न के महीने होते थे बहुत ही व्यस्त रहता था। कैन्टीन ने छोटी ही उमर में शादी कर ली थी। मैं सर्विस में चला गया था। जब भी घर जाता, वहे कहता ‘‘श्याम दा तेरी शादी में मैं ही इंदक बजाऊँगा, तुम बाहर से इंदक मत लाना। मैं कहता, ‘हाँ यार’।
मेरी शादी में उसने बीन और इंदक बजाया और बीन बजाते-बजाते खूब नाचता था, रुकता ही नहीं था। पता नहीं उसका मेरा क्या रिस्ता था, पर एक-दूसरे से मिलकर हम बहुत खुश होते थे, दिनचर्या चल रही थी। कन्टीन अपने बीन बाजा और गाय-बैल में व्यस्त था और मैं अपनी नौकरी में और आगे बढ़ रहे थे।

एक दिन घर के पत्राचार में समाचार मिला की कन्टीन का निधन हो गया है, बहुत दुःखी हुआ, यह अकस्मात था। बचपन की दोस्ती इतनी प्रगाड़ थी कि उसका असमय चले जाना बर्दाास्त नहीं हो रहा था। आज भी मन में एक कसीस सी रहती है कि वह इतनी जल्दी क्यों चला गया। उसका इंदक भी समाप्त हो गया, आज भी जब बीन की आवाज सुनता हूँ, कैन्टीन का चेहरा याद आता है।

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Ghanshyam Chandra Joshi

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