भैलो और पारंपरिक नृत्य के साथ गाँव ही नहीं शहरों में भी महकेगी पहाड़ी व्यंजनों की खुशबू
- सर्वधर्म सद्भाव का सन्देश देते हुए अपने घरों में “इगास-बग्वाल (बूढ़ी दिवाली)” के पावन दिवस पर उत्तराखंड की सृमद्धि के लिए एक उमीदों भरा “दीपक” अवश्य जलायें।
आकाश ज्ञान वाटिका, 14 नवंबर 2021, रविवार, देहरादून। दीपावली के 11 दिन बाद “इगास-बग्वाल (बूढ़ी दिवाली)” का पर्व पर्वतीय अंचल में धूमधाम से मनाया जाता है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को लोकपर्व इगास मनाया जाता है। पर्व की खास बात यह है कि आतिशबाजी करने के बजाय लोग रात को पारंपरिक भैलो खेलते हैं। इस दिन मवेशियों के लिए भात, झंगोरा का पींडू (पौष्टिक आहार) तैयार किया जाता है। उनका तिलक लगाकर फूलों की माला पहनाई जाती है। जब गाय-बैल पींडू खा लेते हैं, तब उनको चराने वाले या गाय-बैलों की सेवा करने वाले बच्चे को पुरस्कार दिया जाता है। इस दिन घरों में पारंपरिक पकवान पूड़ी, स्वाले, उड़द की दाल की पकोड़ी बनाई जाती है। लोग अपने घरों को दीये की रोशनी से सरोबार करते हैं।
इगास के दिन भैलो खेलने का विशेष रिवाज है। चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से भैलो बनाते हैं। इसे दली या छिल्ला कहा जाता है। जहां चीड़ के जंगल न हों, वहां लोग देवदार, भीमल या हींसर की लकड़ी आदि से भी भैलो बनाते हैं। इन लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है। फिर इसे जलाकर घुमाते हैं। इसे ही भैलो खेलना कहा जाता है।
इस बार 14 नवंबर को सुबह 5:48 पर एकादशी तिथि शुरू होकर 15 की सुबह 6:39 तक रहेगी
इस बार 14 अथवा 15 नवंबर को एकादशी को लेकर आमजन में संशय है। उत्तराखंड विद्वत सभा के आचार्य बिजेंद्र प्रसाद ममगाईं के अनुसार, कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही यह पर्व मनाया जाता है। इस बार 14 नवंबर को सुबह 5:48 पर एकादशी तिथि शुरू होकर 15 की सुबह 6:39 तक रहेगी। ऐसे में पूरी तिथि 14 नवंबर को पड़ने से इसी दिन इगास पर्व मनाया जाएगा। इस दिन कई लोग तुलसी विवाह भी करते हैं।
पहाड़ में एकादशी को इगास कहते हैं
डॉ० आचार्य सुशांत राज के मुताबिक पहाड़ में एकादशी को इगास कहते हैं। मान्यता के अनुसार, गढ़वाल में भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना 11 दिन बाद मिली थी। इसलिए यह पर्व मनाया जाता है। दूसरी मान्यता के अनुसार दीपावली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट, तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी और दीपावली के ठीक 11वें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी। युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में तब दीपावली मनाई थी।